"मेरे ख़रीददार / सूरज" के अवतरणों में अंतर
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11:12, 16 मई 2011 के समय का अवतरण
किसी ढाबे से रात का खाना पैक करा रही सुन्दरतम युवती के लिए, जो उस दरमियान तन्दूर के पास खड़ी अपने कोमल हाथ सेंक रही है और शर्तिया मुझे याद कर रही है, जबकि मैं हूँ कि वहीं हूँ – उसी तन्दूर में...
तुमने मेरी क़ीमत नींद लगाई थी
जो हमने स्वप्न देखे वो सूद थे
जब स्वप्न चूरे में बिखर गया
तुमने मुझे समुद्र के हाथों बेच दिया
मेरी स्त्री !
बिकना मेरे भाग्य का अंतिम किनारा रहा
पर तुम ऐसा करोगी इसका भान नहीं था,
लगा तुम ग़ुम हो गई हो
किसी बिन-आबादी वाले इलाके में
मैने समुद्र से लड़ाई मोल ली
उसे पराजित किया
तुम्हारे लिए तोड़ लाया समुद्र से चार लहरें
जैसे मैं जानता था तुम्हारे सलोने
वक्षों को होगा इन लहरों का इन्तजार
तब,
मेरी स्मृतियों को औने-पौने में ख़रीद
तुमने मुझे बर्फ़ को बेच दिया
जो तुम्हारी लम्बी उँगलियों के
पोरों की तरह ठंडी थी
बर्फ़ के लिए मैं बेसम्भाल था
उसने मुझे पर्वत को बेच दिया
पर्वत ने शाम को
शाम ने देवदार को
देवदार ने पत्थरों को
और पत्थरों ने मुझे नदी को बेच दिया
स्मृतिहीन जीवन के लिए धिक्कारते हुए
नदी ने मुझे पाला अपने गर्भ की मछलियों,
एकांत,
और शीतल आसमान के शामियाने के सहारे
नदी को आगे बहुत दूर जाना था
उसने मुझे कला को बेच दिया
मात्र एक वादे की क़ीमत पर
कला के पास रोटी के अलावा देने के लिए सब कुछ था
कला ने साँस लेने की तरकीब सिखाई
फाँकों में सम पर बने रहने का सलीका
और तुम्हे याद कर सकूँ इसलिए कविता सिखाई
अनुपलब्ध रोटी के लिए कला उदास रहती थी
उसने विचार से सौदा किया
और जो मौसम उन दिनों था
उस मौसम ने विचार के कान भरे
विचार ने मुझे अच्छाईयों का ग़ुलाम बनाना चाहा
मैने यह शर्त अपने पूरेपन नामंज़ूर की
मेरे इंकार पर विचार ने मुझे ग़ुलाम
बताकर बाज़ार को बेच दिया
बाजार ने मुझे रौँदा
शत्रु की तरह नही
मिट्टी की तरह और ऐसा करते हुए
वो आत्मीय कुम्हार की धोती बाँधे था
जिसमें चार पैबन्द थे
चार पैबन्द से
चार लहरों की स्मृति मुझे वापस मिली
जिसकी सज़ा में बाज़ार ने
मेरा सौदा आग से कर लिया
बाज़ार को क़ीमत मिली और
मुझे अपने नाकारा नहीं होने का
इकलौता सबूत
तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आई
आज शाम जब आग मुझे
तन्दूर में सजा रही थी
मैं तुम्हे याद कर रहा था
उपलों के बीच तुम्हारी याद सीझती रही
सीझती रही
सीझती रही...
जिसकी आँच में सिंक रहे थे
तुम्हारे कोमल हाथ
और सिंक रही थीं
तुम्हारे लिये रोटियाँ