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"रीढ़ / अनिल विभाकर" के अवतरणों में अंतर

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दौलत के बल पर गुर्दा मिला, जैसा चाहा वैसा
 
दौलत के बल पर गुर्दा मिला, जैसा चाहा वैसा
खून मिला, बिल्कुल असली
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ख़ून मिला, बिल्कुल असली
 
शरीर के ढेर सारे अंग मिले  
 
शरीर के ढेर सारे अंग मिले  
 
किराए पर मिली कोख भी  
 
किराए पर मिली कोख भी  
 
   
 
   
जहां भी की रीढ़ की बात
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जहाँ भी की रीढ़ की बात
 
ढेर सारी रीढ़ दिखाई सौदागरों ने  
 
ढेर सारी रीढ़ दिखाई सौदागरों ने  
 
पसंद नहीं आई एक भी
 
पसंद नहीं आई एक भी
 
सब लुंज-पुंज
 
सब लुंज-पुंज
 
   
 
   
मुंहमांगी कीमत देने को तैयार था
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मुँहमाँगी क़ीमत देने को तैयार था
धरा रह गया पूरा खजाना
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धरा रह गया पूरा खज़ाना
एक नहीं ढेर सारी मिलीं तनी हुई तर्जनियां
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एक नहीं ढेर सारी मिलीं तनी हुई तर्जनियाँ
 
कहीं नहीं मिली तनी हुई रीढ़
 
कहीं नहीं मिली तनी हुई रीढ़
दुकानदार ने कहा - यहां क्या कहीं नहीं मिलेगी  
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दुकानदार ने कहा - यहाँ क्या कहीं नहीं मिलेगी  
 
विष्णु के सात फनों वाले  
 
विष्णु के सात फनों वाले  
शेषनाग की तरह दुर्लभ है यह।
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शेषनाग की तरह दुर्लभ है यह ।
 
   
 
   
 
बिना तनी हुई रीढ़ के चल रहा है यह देश
 
बिना तनी हुई रीढ़ के चल रहा है यह देश
यही है देशवासियों के दुख की असली वजह</poem>
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यही है देशवासियों के दुख की असली वज़ह
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13:28, 22 मई 2011 के समय का अवतरण


इस देश का कोई कोना नहीं बचा
कोई बाजार नहीं
हर जगह तलाशा-पूछा
लौटना पड़ा खाली हाथ
 
दौलत के बल पर गुर्दा मिला, जैसा चाहा वैसा
ख़ून मिला, बिल्कुल असली
शरीर के ढेर सारे अंग मिले
किराए पर मिली कोख भी
 
जहाँ भी की रीढ़ की बात
ढेर सारी रीढ़ दिखाई सौदागरों ने
पसंद नहीं आई एक भी
सब लुंज-पुंज
 
मुँहमाँगी क़ीमत देने को तैयार था
धरा रह गया पूरा खज़ाना
एक नहीं ढेर सारी मिलीं तनी हुई तर्जनियाँ
कहीं नहीं मिली तनी हुई रीढ़
दुकानदार ने कहा - यहाँ क्या कहीं नहीं मिलेगी
विष्णु के सात फनों वाले
शेषनाग की तरह दुर्लभ है यह ।
 
बिना तनी हुई रीढ़ के चल रहा है यह देश
यही है देशवासियों के दुख की असली वज़ह