"बचपन / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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नंगी सड़क के किनारे | नंगी सड़क के किनारे | ||
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भूख से झुलसा हुआ बचपन | भूख से झुलसा हुआ बचपन | ||
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प्यास की पनाह में | प्यास की पनाह में | ||
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प्लास्टिक चुनता है जब | प्लास्टिक चुनता है जब | ||
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कोई देखता तक नहीं | कोई देखता तक नहीं | ||
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मगर वहीं कहीं | मगर वहीं कहीं | ||
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पीठ पर परिवार का बोझ उठाये | पीठ पर परिवार का बोझ उठाये | ||
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रोटी को तरसती जवानी | रोटी को तरसती जवानी | ||
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हथेली खोल देती है | हथेली खोल देती है | ||
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तो अनगिनत आँखें | तो अनगिनत आँखें | ||
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छाती के उभार से टकरा कर | छाती के उभार से टकरा कर | ||
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हँसी के होठ को छूती है | हँसी के होठ को छूती है | ||
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क्या यही भविष्य है भारत का ? | क्या यही भविष्य है भारत का ? | ||
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क्या यही फैसला है कुदरत का ? | क्या यही फैसला है कुदरत का ? | ||
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कि उतार कर जिस्म का छिलका | कि उतार कर जिस्म का छिलका | ||
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नमक के नाद में रख दो | नमक के नाद में रख दो | ||
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और रूह जब कच्ची-सी लगे | और रूह जब कच्ची-सी लगे | ||
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तो भून कर उसे | तो भून कर उसे | ||
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खा लो – चाय या कॉफी के साथ | खा लो – चाय या कॉफी के साथ | ||
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महसूस हो अधूरा-सा | महसूस हो अधूरा-सा | ||
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जब ज़िन्दगी पीते समय | जब ज़िन्दगी पीते समय | ||
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या उजाला गले से ना उतरे | या उजाला गले से ना उतरे | ||
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तो चाँद को ‘फ्राई’ कर लो | तो चाँद को ‘फ्राई’ कर लो | ||
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और चबाओ चने की तरह | और चबाओ चने की तरह | ||
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ये हक़ किसने दिया ? | ये हक़ किसने दिया ? | ||
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यूँ ही पिसने दिया ? | यूँ ही पिसने दिया ? | ||
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खुशी को चक्कियों के बीच | खुशी को चक्कियों के बीच | ||
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नसीब का नाम देकर | नसीब का नाम देकर | ||
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ताकि बढ़ता ही रहे | ताकि बढ़ता ही रहे | ||
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अंधेरों का अधिकार क्षेत्र | अंधेरों का अधिकार क्षेत्र | ||
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और देश की जगह | और देश की जगह | ||
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एक ऐसी मशीन हो | एक ऐसी मशीन हो | ||
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जिसे मर्ज़ी के अनुसार | जिसे मर्ज़ी के अनुसार | ||
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स्टार्ट और बन्द किया जा सके | स्टार्ट और बन्द किया जा सके | ||
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तड़प रहा है धूप का टूकड़ा | तड़प रहा है धूप का टूकड़ा | ||
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बहुत बेबस हैं बेजुबान कमरे | बहुत बेबस हैं बेजुबान कमरे | ||
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खिड़की का ख़ौफ बरसता है | खिड़की का ख़ौफ बरसता है | ||
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बचपन ज़िन्दगी को तरसता है | बचपन ज़िन्दगी को तरसता है | ||
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नंगी सड़क के किनारे | नंगी सड़क के किनारे | ||
− | + | भूख से झुलसा हुआ बचपन। | |
− | भूख से झुलसा हुआ | + | |
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01:39, 25 मई 2011 के समय का अवतरण
नंगी सड़क के किनारे
भूख से झुलसा हुआ बचपन
प्यास की पनाह में
प्लास्टिक चुनता है जब
कोई देखता तक नहीं
मगर वहीं कहीं
पीठ पर परिवार का बोझ उठाये
रोटी को तरसती जवानी
हथेली खोल देती है
तो अनगिनत आँखें
छाती के उभार से टकरा कर
हँसी के होठ को छूती है
क्या यही भविष्य है भारत का ?
क्या यही फैसला है कुदरत का ?
कि उतार कर जिस्म का छिलका
नमक के नाद में रख दो
और रूह जब कच्ची-सी लगे
तो भून कर उसे
खा लो – चाय या कॉफी के साथ
महसूस हो अधूरा-सा
जब ज़िन्दगी पीते समय
या उजाला गले से ना उतरे
तो चाँद को ‘फ्राई’ कर लो
और चबाओ चने की तरह
ये हक़ किसने दिया ?
यूँ ही पिसने दिया ?
खुशी को चक्कियों के बीच
नसीब का नाम देकर
ताकि बढ़ता ही रहे
अंधेरों का अधिकार क्षेत्र
और देश की जगह
एक ऐसी मशीन हो
जिसे मर्ज़ी के अनुसार
स्टार्ट और बन्द किया जा सके
तड़प रहा है धूप का टूकड़ा
बहुत बेबस हैं बेजुबान कमरे
खिड़की का ख़ौफ बरसता है
बचपन ज़िन्दगी को तरसता है
नंगी सड़क के किनारे
भूख से झुलसा हुआ बचपन।