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21:14, 28 मई 2011 के समय का अवतरण
लिखी जा रही हैं कविताएँ
अख़बार की ज़मीन पर ।
फड़फड़ा रहे हैं कहानियों के पन्ने
पुस्तकालयों के रैक्स पर ।
खींसें निपोर रहे हैं श्रोता
मंच के मसखरों पर ।
बाँग दे रहे हैं आलोचक
टी०वी० स्क्रीन पर ।
मंत्रणा हो रही है विद्वान, मनीषियों में
कि बाँझ हो गई है लेखनी।
उधर जंगल में नाच रहा है मोर !