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"मेले से आईं लड़कियाँ / नील कमल" के अवतरणों में अंतर

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01:36, 5 जून 2011 के समय का अवतरण

जब कि रास्ते दो ही थे
उन्हें चुनना था एक को
वे मेले से बाहर आना चाहती थीं

एक रास्ता उन्हें लाता
मेले के चमक-दमक में
उनके होंठ तब इस तरह
सूखे-दरके नहीं रहते

दूसरा रास्ता जाता
मेले से बाहर की दुनिया में
जहाँ ख़रीददारों की मर्ज़ी चलती

उन्होंने बिक जाने को
बचे रहने के पक्ष में चुना

एक लड़की जुट गई आख़िरकार
बाबू साहब के लिए
वे लड़की को सोते-जागते
ओढ़ते-बिछाते, खाते-पीते
और डकारते

लड़की भूलने लगी
मेले से पहले के बसंत
जबकि बसंत उतर चुका था
उसके तन-मन में
बदलता हुआ करवटें

लड़की ने प्रेम किया था
यदि यह किंवदंती सच है
लड़की ने पीठ पर ढोई थी
धूप की गठरियाँ

छाँह की हत्या भी कर डाली
चिलचिलाती दोपहरी में

लग गया था मेला
सावन के अंधे बाबू साहब
रहने लगे गूँगे

मेले से आई लड़की
फिर आई मेले
जिस राह गई थी मेले से बाहर ।