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"बाहर-भीतर / राजेन्द्र कुमार" के अवतरणों में अंतर

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23:17, 10 जून 2011 के समय का अवतरण

वह हमारे बाहर है
वह पाँवों के नीचे बारूद के फूल बिछाता हुआ
वह हमारे भीतर भी है / जासूस-सा
हमारी शिराओं को टटोलता हुआ
अनुच्चारित-सा कुछ बोलता हुआ
हमारी हर धड़कन के जवाब में

सभ्य दिखने के चक्कर में
हम जिन नाख़ूनों को कुतर डालते हैं
उन्हीं से वह अपनी भयानक उँगलियों के कवच
                             तैयार करता है

और वह
हमारे भीतर-बाहर के बीच भी कहीं है
हमारे त्वग्संवेदन को
कुंठित करता हुआ / यानी उस पर
सुखाभासी बाम का लेप करता हुआ

वह एक स्तर पर मरकर भी
दूसरे पर
तुरन्त जी सकता है
पसारकर अपनी / खुरदुरी रसना
हमारी आँखों का संकल्प-रस--
सारा का सारा-- पी सकता है !