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बहुत दिन बीते
पाकड़ का छतनार पेड़ नहीं रहा
नहीं रही किसी के होंठों पर छतनार हंसी
और ना ही दादा रहे
लोग नहीं बचे
बुझे चूल्हे-सी उदास
गलियाँ बची रहीं
सर पर उठे हाथों में
ठण्ड के सोते
ख़ून में प्यार की गर्माहट नहीं
कौड़े की आग बची रही
दिअर के देखते देखते
गोरूओं के निशान
लीक पर नहीं रहे
खेत-खलिहान बचे रहे
फ़सलों की आमद नहीं रही
नहीं रहे धड़कनें पहचानने वाले दोस्त
हवा में नमी
और नदी की धार नहीं रही
परी-कथाओं सरीखा बचपन
दादी की जादुई किस्साई पोटली
सुबह के रंग और शाम की रोशनी नहीं रही
हम ढूहों से बचे रहे
धूप में तपते
पाकड़ नहीं रहा
नहीं रहे दादा
पाकड़ की आख़िरी हँसी बची रही