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"निराशा की कविता / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

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हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के
 
हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के

22:30, 29 दिसम्बर 2007 का अवतरण


बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाये

तो उसे निराशा कहा जाता है. निराश आदमी को लोग दूर से ही

सलाम करते हैं. अपनी निराशा को हम इस तरह बचाये रखते हैं जैसे

वही सबसे बड़ी ख़ुशी हो. हमारी आँखों के सामने संसार पर धूल जमती

है. चिड़ियाँ फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ती दिखती हैं. संगीत भी

हमें उदार नहीं बना पाता. हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई

देता है. रंगों में हमें ख़ून क धब्बे और हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते

हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के

बाहर लगता है.


निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो. हमें दो चार क़दम चलने

की सामर्थ्य दो.


(रचनाकाल :1990)