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21:31, 30 जून 2011 के समय का अवतरण

ज़र्द है चाँद का मायूस चेहरा
रह-रह कर खाँस उठता है
दमे का मरीज़ बूढ़ा आसमान
उधर अपना ग़म ग़लत कर रहे हैं सितारे
शराब की तल्ख घूंटों में
और इधर
भूख से कुलबुलाती हुई ओस की दुधमुँही बूँदें
अपने अस्तित्व की भीख माँग रही हैं।

फुटपाथों पर ठिठुर रहा है बेघरबार सन्नाटा
बेरोज़गारी से तंग उजाला
रेल की पटरी पर कट कर मर गया है ।
अपने कसमसाते हुए प्यार को पाबन्दियों के किनारों में जकड़े
करवटें बदल रही है
हिस्टीरिया से पीड़ित झीलें
पहाड़
अपने पौरुष की लाश पर पुराने संस्कारों की बर्फ़ का कफ़न डाले
मातम मना रहे हैं ।

अकेला चीख़ रहा है कुँवारी रात का अवैध बच्चा
बादलों की जवान बेटियाँ
जिस्म की दूकान कर रही हैं
पत्थरों को पूज रहीं हैं मासूम कलियाँ
फूलों को परेड मैदानों में पंक्तिबद्ध करके
संगीनें भोंकने की दीक्षा दी जा रही है ।

हथकड़ियों से जकड़ी हुई हैं पेड़ों की शाखें
बेलों की साँसों पर पहरा लगा है ।
सुरक्षा-अधिनियम में गिरफ़्तार कर लिए गए हैं झरने
पृष्ठभूमि
आँधियों के आंदोलनों को मशीनगनों से भूना जा रहा है ।

टीयर-गैस से आक्रान्त हैं दिशाओं की आँखें
धरती का एक-एक जोड़
दर्दा रहा है -
शायद कोई सबेरा
क्षितिज के गर्भ में छटपटा रहा है !