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22:11, 30 जून 2011 के समय का अवतरण
मेरे नए और नन्हें साथियो !
तुम जो अपने-अपने क्रीट-द्वीपों के क़ैदखानों से
उड़ानें भरने के लिए तैयार खड़े हो,
और मुझसे मेरे अनुभव पूछ रहे हो,
मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ
कि तुम्हें क्या बताऊँ?
कभी सोचता हूँ कि
तुम्हें बताऊँ
कि कितने कमज़ोर होते हैं मानवीय साहस के पंख
कितना ऊँचा हैं यह आकाश
कितनी गर्म होती है यथार्थ के सूर्य की किरणें
और कितना द्रवणशील होता है वह आदर्शों का मोम
जिससे हम अपने पंख अपने शरीरों से जोड़ते हैं ।
कभी सोचता हूँ कि तुम्हें बताऊँ
कि हर ऊँची उड़ान का अन्त
पिघले हुए मोम और टूटे हुए डैनों में होता है
कि वे बाँहें
जो अपनी सीमाओं में आकाश को घेर लेना चाहती हैं
टूट कर समन्दर में बिखर जाती हैं ।
लेकिन फिर सोचता हूं
कि यदि यह सब कुछ निश्चित भी हो
यदि मोम का पिघलना और पंखों का टूटना
एक सार्वभौम सत्य भी हो
तो भी मुझे क्या अधिकार है
तुम्हारी कसमसाती हुई बाँहों को निराश करने का
तुम्हारे फड़कते हुए डैनों का विश्वास छीनने का ।
क्या अधिकार है
उड़ान के उस आनन्द से तुम्हें वंचित रखने का
जो शायद हर परिणाम के बावजूद
ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सार्थकता है।
फिर क्या मालूम
शायद तुम्हारे डैने मेरे डैनों से ज्यादा मज़बूत हों
तुम्हारा मोम कम द्रवणशील हो
तुम्हारा सूर्य उतना प्रचण्ड न हो
तुम्हारा आकाश तुम्हारी उड़ान के प्रति उतना क्रूर न हो
शायद तुम्हारी बाँहें
आकाश को अधिक देर तक घेर कर रख सकें ।
इसलिए
मेरे नए साथियो !
मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं
ज़रा सूरज का ध्यान रख कर उड़ना !