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| {{KKGlobal}} | | {{KKGlobal}} |
− | रचनाकारः [[सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]]
| + | {{KKRachna |
| + | |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
| + | }} |
| [[Category:लम्बी कविता]] | | [[Category:लम्बी कविता]] |
| | | |
− | | + | *[[तुलसीदास / भाग १ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
− | ::[1]<br>
| + | *[[तुलसीदास / भाग २ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
− | भारत के नभ के प्रभापूर्य<br>
| + | *[[तुलसीदास / भाग ३ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
− | शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य<br>
| + | *[[तुलसीदास / भाग ४ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]] |
− | अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;<br>
| + | |
− | उर के आसन पर शिरस्त्राण<br>
| + | |
− | शासन करते हैं मुसलमान;<br>
| + | |
− | है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।<br><br>
| + | |
− | ::[2]<br>
| + | |
− | शत-शत शब्दों का सांध्य काल<br>
| + | |
− | यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल<br>
| + | |
− | छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;<br>
| + | |
− | आया पहले पंजाब प्रान्त,<br>
| + | |
− | कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,<br>
| + | |
− | क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।<br><br>
| + | |
− | ::[3]<br>
| + | |
− | मोगल-दल बल के जलद-यान,<br>
| + | |
− | दर्पित-पद उन्मद पठान<br>
| + | |
− | बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,<br>
| + | |
− | छाया ऊपर घन-अन्धकार--<br>
| + | |
− | टूटता वज्र यह दुर्निवार,<br>
| + | |
− | नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।<br><br>
| + | |
− | ::[4]<br>
| + | |
− | रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड<br>
| + | |
− | आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;<br>
| + | |
− | निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,<br>
| + | |
− | निःशेष सुरभि, कुरबक-समान<br>
| + | |
− | संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,<br>
| + | |
− | बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।<br><br>
| + | |
− | ::[5]<br>
| + | |
− | वीरों का गढ़, वह कालिंजर,<br>
| + | |
− | सिंहों के लिए आज पिंजर<br>
| + | |
− | नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते<br>
| + | |
− | पीकर ज्यों प्राणों का आसव<br>
| + | |
− | देखा असुरों ने दैहिक दव,<br>
| + | |
− | बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।<br><br>
| + | |
− | ::[6]<br>
| + | |
− | लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,<br>
| + | |
− | हो शायित देश की पृथ्वी पर,<br>
| + | |
− | अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण<br>
| + | |
− | भारत के उर के राजपूत,<br>
| + | |
− | उड़ गये आज वे देवदूत,<br>
| + | |
− | जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।<br><br>
| + | |
− | ::[7]<br>
| + | |
− | यों मोगल-पद-तल प्रथम तूर्ण<br>
| + | |
− | सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण<br>
| + | |
− | इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद<br>
| + | |
− | संचित जीवन की क्षिप्रधार,<br>
| + | |
− | इसलाम - सागराभिमुख पार,<br>
| + | |
− | बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।<br><br>
| + | |
− | ::[8]<br>
| + | |
− | अब धौत धरा खिल गया गगन,<br>
| + | |
− | उर-उर को मधुर तापप्रशमन<br>
| + | |
− | बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।<br>
| + | |
− | झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण<br>
| + | |
− | पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन<br>
| + | |
− | ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन<br><br>
| + | |
− | ::[9]<br>
| + | |
− | भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल<br>
| + | |
− | फैला-यह केवल-कल्प काल--<br>
| + | |
− | कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता<br>
| + | |
− | प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,<br>
| + | |
− | लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द<br>
| + | |
− | होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।<br><br>
| + | |
− | ::[10]<br>
| + | |
− | सोचता कहाँ रे, किधर कूल<br>
| + | |
− | कहता तरंग का प्रमुद फूल<br>
| + | |
− | यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता<br>
| + | |
− | छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,<br>
| + | |
− | वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल<br>
| + | |
− | निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।<br><br>
| + | |
− | ::[11]<br>
| + | |
− | पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर<br>
| + | |
− | यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,<br>
| + | |
− | वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;<br>
| + | |
− | यह एक उन्ही में राजापुर,<br>
| + | |
− | है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,<br>
| + | |
− | ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[12]<br>
| + | |
− | युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन<br>
| + | |
− | समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन<br>
| + | |
− | जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;<br>
| + | |
− | आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,<br>
| + | |
− | अपने प्रकाश में निःसंशय<br>
| + | |
− | प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[13]<br>
| + | |
− | नीली उस यमुना के तट पर<br>
| + | |
− | राजापुर का नागरिक मुखर<br>
| + | |
− | क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;<br>
| + | |
− | प्रियजन को जीवन चारु, चपल<br>
| + | |
− | जल की शोभा का-सा उत्पल,<br>
| + | |
− | सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[14]<br>
| + | |
− | एक दिन सखागण संग, पास,<br>
| + | |
− | चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,<br>
| + | |
− | देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;<br>
| + | |
− | वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर<br>
| + | |
− | कुछ खुलती आभा में रँगकर,<br>
| + | |
− | वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[15]<br>
| + | |
− | केवल विस्मित मन चिन्त्य नयन;<br>
| + | |
− | परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-<br>
| + | |
− | ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,<br>
| + | |
− | हो मध्य तरंगाकुल सागर,<br>
| + | |
− | निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;<br>
| + | |
− | जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[16]<br>
| + | |
− | तरु-तरु वीरुध्-वीरुध् तृण-तृण<br>
| + | |
− | जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,<br>
| + | |
− | जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;<br>
| + | |
− | भर लेने को उर में, अथाह,<br>
| + | |
− | बाहों में फैलाया उछाह;<br>
| + | |
− | गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[17]<br>
| + | |
− | कहता प्रति जड़ "जंगम-जीवन!<br>
| + | |
− | भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?<br>
| + | |
− | यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;<br>
| + | |
− | तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,<br>
| + | |
− | देखो यह धूलि-धूसरित छवि,<br>
| + | |
− | छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[18]<br>
| + | |
− | "हनती आँखों की ज्वाला चल,<br>
| + | |
− | पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,<br>
| + | |
− | ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;<br>
| + | |
− | वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,<br>
| + | |
− | है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;<br>
| + | |
− | केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[19]<br>
| + | |
− | "फिर असुरों से होती क्षण-क्षण<br>
| + | |
− | स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;<br>
| + | |
− | वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब<br>
| + | |
− | इस जग के मग के मुक्त-प्राण!<br>
| + | |
− | गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,<br>
| + | |
− | त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[20]<br>
| + | |
− | "लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,<br>
| + | |
− | पाषाण-खण्ड ये, करो हार,<br>
| + | |
− | दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;<br>
| + | |
− | अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,<br>
| + | |
− | बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,<br>
| + | |
− | झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[21]<br>
| + | |
− | "अब स्मर के शर-केशर से झर<br> | + | |
− | रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;<br>
| + | |
− | छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;<br>
| + | |
− | छिप रहे उसी से वे प्रियतमम<br>
| + | |
− | छवि के निश्छल देवता परम;<br>
| + | |
− | जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[22]<br>
| + | |
− | बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल<br>
| + | |
− | वन को कर जाती है व्याकुल,<br>
| + | |
− | हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;<br>
| + | |
− | वह उस शाखा का वन-विहग<br>
| + | |
− | छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[23]<br>
| + | |
− | दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,<br>
| + | |
− | कर रहा पार मन नभोदेश,<br>
| + | |
− | सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,<br>
| + | |
− | छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार<br>
| + | |
− | उड़ती तरंग ऊपर अपार<br>
| + | |
− | संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[24]<br>
| + | |
− | उस मानस उर्ध्व देश में भी<br>
| + | |
− | ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की<br>
| + | |
− | देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--<br>
| + | |
− | भारत का सम्यक देशकाल;<br>
| + | |
− | खिंचता जैसे तम-शेष जाल,<br>
| + | |
− | खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[25]<br>
| + | |
− | बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल<br>
| + | |
− | क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;<br>
| + | |
− | पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;<br>
| + | |
− | हो रहा भस्म अपना जीवन,<br>
| + | |
− | चेतना-हीन फिर भी चेतन;<br>
| + | |
− | अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[26]<br>
| + | |
− | इसने ही जैसे बार-बार<br>
| + | |
− | दूसरी शक्ति की की पुकार--<br>
| + | |
− | साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;<br>
| + | |
− | यह उसी शक्ति से है वलयित<br>
| + | |
− | चित देश-काल का सम्यक् जित,<br>
| + | |
− | ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[27]<br>
| + | |
− | विधि की इच्छा सर्वत्र अटल;<br>
| + | |
− | यह देश प्रथम ही था हत-बल;<br>
| + | |
− | वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;<br>
| + | |
− | तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व<br>
| + | |
− | क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;<br>
| + | |
− | द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[28]<br>
| + | |
− | चलते फिरते पर निस्सहाय,<br>
| + | |
− | वे दीन, क्षीण कंकालकाय;<br>
| + | |
− | आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;<br>
| + | |
− | रण के अश्वों से शस्य सकल<br>
| + | |
− | दलमल जाते ज्यों, दल के दल<br>
| + | |
− | शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[29]<br>
| + | |
− | वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष,<br>
| + | |
− | पाते प्रहार अब हताश्वास;<br>
| + | |
− | सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के<br>
| + | |
− | होना ही उनका धर्म परम,<br>
| + | |
− | वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,<br>
| + | |
− | वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[30]<br>
| + | |
− | रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम<br>
| + | |
− | जो पहला पद, अब मद-विष-सम;<br>
| + | |
− | द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,<br>
| + | |
− | जो देशकाल को आवृत कर<br>
| + | |
− | फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,<br>
| + | |
− | देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।<br><br>
| + | |
− | ::[31]<br>
| + | |
− | इस छाया के भीतर है सब,<br>
| + | |
− | है बँधा हुआ सारा कलरव,<br>
| + | |
− | भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर।<br>
| + | |
− | इसके भीतर रह देश-काल<br>
| + | |
− | हो सकेगा न रे मुक्त-भाल,<br>
| + | |
− | पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[32]<br>
| + | |
− | दीनों की भी दुर्बल पुकार<br>
| + | |
− | कर सकती नहीं कदापि पार<br>
| + | |
− | पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर,<br>
| + | |
− | जब तक कांक्षाओं के प्रहार<br>
| + | |
− | अपने साधन को बार-बार<br>
| + | |
− | होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[33]<br>
| + | |
− | सोचा कवि ने, मानस-तरंग,<br>
| + | |
− | यह भारत-संस्कृति पर सभंग<br>
| + | |
− | फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को;<br>
| + | |
− | इस अनिल-वाह के पार प्रखर<br>
| + | |
− | किरणों का वह ज्योतिर्मय घर,<br>
| + | |
− | रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[34]<br>
| + | |
− | है वही मुक्ति का सत्य रूप,<br>
| + | |
− | यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप;<br>
| + | |
− | वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे।<br>
| + | |
− | चाहिए उसे और भी और,<br>
| + | |
− | फिर साधारण को कहाँ ठौर?<br>
| + | |
− | जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[35]<br>
| + | |
− | करना होगा यह तिमिर पार-<br>
| + | |
− | देखना सत्य का मिहिर-द्वार-<br>
| + | |
− | बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय-<br>
| + | |
− | लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर,<br>
| + | |
− | रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर-<br>
| + | |
− | जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[36]<br>
| + | |
− | कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम<br>
| + | |
− | चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम<br>
| + | |
− | वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को--<br>
| + | |
− | करने को ज्ञानोद्धत प्रहार--<br>
| + | |
− | तोड़ने को विषम वज्र-द्वार;<br>
| + | |
− | उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[37]<br>
| + | |
− | उस क्षण, उस छाया के ऊपर,<br>
| + | |
− | नभ-तम की-सी तारिका सुघर;<br>
| + | |
− | आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम<br>
| + | |
− | प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम<br>
| + | |
− | शुभ रत्नावली-सरोज-दाम<br>
| + | |
− | वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[38]<br>
| + | |
− | 'जाते हो कहाँ?' तुले तिर्यक्<br>
| + | |
− | दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक्<br>
| + | |
− | प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से;<br>
| + | |
− | फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल--<br>
| + | |
− | इन्दीवर के-से कोश विमल;<br>
| + | |
− | फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[39]<br>
| + | |
− | उस ऊँचे नभ का, गुंजनपर,<br>
| + | |
− | मंजुल जीवन का मन-मधुकर,<br>
| + | |
− | खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को<br>
| + | |
− | बैठा ही था सुख से क्षण-भर,<br>
| + | |
− | मुँद गये पलों के दल मृदुतर,<br>
| + | |
− | रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[40]<br>
| + | |
− | उसके अदृश्य होते ही रे,<br>
| + | |
− | उतरा वह मन धीरे-धीरे,<br>
| + | |
− | केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय;<br>
| + | |
− | यह वही प्रकृति पर रूप अन्य;<br>
| + | |
− | जगमग-जगमग सब वेश वन्य;<br>
| + | |
− | सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[41]<br>
| + | |
− | यह श्री पावन, गृहिणी उदार;<br>
| + | |
− | गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार;<br>
| + | |
− | कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती;<br>
| + | |
− | सब जीवों पर है एक दृष्टि,<br>
| + | |
− | तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि,<br>
| + | |
− | प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[42]<br>
| + | |
− | ये जिस कर के रे झंकृत स्वर<br>
| + | |
− | गूँजते हुए इतने सुखकर,
| + | |
− | खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते;<br>
| + | |
− | व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर,<br>
| + | |
− | रागिनी की लहर गिरि-वन-सर<br>
| + | |
− | तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[43]<br>
| + | |
− | यों धीरे-धीरे उतर-उतर<br>
| + | |
− | आया मन निज पहली स्थिति पर;<br>
| + | |
− | खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा;<br>
| + | |
− | विश्राम के लिए मित्र-प्रवर<br>
| + | |
− | बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर;<br>
| + | |
− | वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[44]<br>
| + | |
− | फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल<br>
| + | |
− | गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल<br>
| + | |
− | सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे।<br>
| + | |
− | फिर कोटितीर्थ देवांगनादि<br>
| + | |
− | लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि<br>
| + | |
− | नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[45]<br>
| + | |
− | आये हनुमद्धारा द्रुततर,<br>
| + | |
− | झरता झरना वीर पर प्रखर,<br>
| + | |
− | लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर;<br>
| + | |
− | फिर उतरे गिरि, चल किया पार<br>
| + | |
− | पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार;<br>
| + | |
− | स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[46]<br>
| + | |
− | कामदागिरि का कर परिक्रमण<br>
| + | |
− | आये जानकी-कुण्ड सब जन;<br>
| + | |
− | फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम,<br>
| + | |
− | फिर भरतकूप, रह इस प्रकार,<br>
| + | |
− | कुछ दिन सब जन कर वन-विहार<br>
| + | |
− | लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[47]<br>
| + | |
− | प्रेयसी के अलक नील, व्योम;<br>
| + | |
− | दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम;<br>
| + | |
− | निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर;<br>
| + | |
− | पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर<br>
| + | |
− | देखता भूल दिक् उसी ओर;<br>
| + | |
− | कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[48]<br>
| + | |
− | जिस शुचि प्रकाश का सौर-जगत्<br>
| + | |
− | रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्,<br>
| + | |
− | वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से;<br>
| + | |
− | अविनश्वर वही ज्ञान भीतर,<br>
| + | |
− | बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर<br>
| + | |
− | वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[49]<br>
| + | |
− | देखता, नवल चल दीप युगल<br>
| + | |
− | नयनों के, आभा के कोमल;<br>
| + | |
− | प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के,<br>
| + | |
− | गृह की सीमा के स्वच्छभास--<br>
| + | |
− | भीतर के, बाहर के प्रकाश,<br>
| + | |
− | जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[50]<br>
| + | |
− | पर वही द्वन्द्व के कारण,<br>
| + | |
− | बन्ध की श्रृंखला के धारण,<br>
| + | |
− | निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय;<br>
| + | |
− | वे पलकों के उस पार, अर्थ<br>
| + | |
− | हो सका न, वे ऐसे समर्थ;<br>
| + | |
− | सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[51]<br>
| + | |
− | उस प्रियावरण प्रकाश में बँध,<br>
| + | |
− | सोचता, "सहज पड़ते पग सध;<br>
| + | |
− | शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर<br>
| + | |
− | यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल,<br>
| + | |
− | दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल;<br>
| + | |
− | बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[52]<br>
| + | |
− | "बन्ध के बिना कह, कहाँ प्रगति ?<br>
| + | |
− | गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ?<br>
| + | |
− | रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति;<br>
| + | |
− | यह क्रम विनाश इससे चलकर<br>
| + | |
− | आता सत्वर मन निम्न उतर;<br>
| + | |
− | छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[53]<br>
| + | |
− | "देखो प्रसून को वह उन्मुख !<br>
| + | |
− | रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख,<br>
| + | |
− | देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह।<br>
| + | |
− | चटका कलि का अवरोध सदल,<br>
| + | |
− | वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल,<br>
| + | |
− | खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[54]<br>
| + | |
− | "जिस तरह गन्ध से बँधा फूल,<br>
| + | |
− | फैलता दूर तक भी समूल;<br>
| + | |
− | अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में<br>
| + | |
− | मैं बँधा एक शुचि आलिंगन,<br>
| + | |
− | आकृति में निराकार, चुम्बन;<br>
| + | |
− | युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[55]<br>
| + | |
− | सोचता कौन प्रतिहत चेतन-<br>
| + | |
− | वे नहीं प्रिया के नयन, नयन;<br>
| + | |
− | वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में;<br>
| + | |
− | अपने वश में कर पुरुष देश<br>
| + | |
− | है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश;<br>
| + | |
− | तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में?<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[56]<br>
| + | |
− | वह ऐसी जो अनुकूल युक्ती,<br>
| + | |
− | जीव के भाव की नहीं मुक्ति;<br>
| + | |
− | वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;<br>
| + | |
− | जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,<br>
| + | |
− | विश्व के प्राण के भी ऊपर;<br>
| + | |
− | माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[57]<br>
| + | |
− | मृत्तिका एक कर सार ग्रहण<br>
| + | |
− | खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,<br>
| + | |
− | त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,<br>
| + | |
− | पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,<br>
| + | |
− | ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,<br>
| + | |
− | बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[58]<br>
| + | |
− | वह रत्नावली नाम-शोभन<br>
| + | |
− | पति-रति में प्रतन, अतः लोभन<br>
| + | |
− | अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,<br>
| + | |
− | प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,<br>
| + | |
− | प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;<br>
| + | |
− | मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[59]<br>
| + | |
− | लखती ऊषारुण, मौन, राग,<br>
| + | |
− | सोते पति से वह रही जाग;<br>
| + | |
− | प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;<br>
| + | |
− | प्रिय के जड़ युग कूलों को भर<br>
| + | |
− | बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;<br>
| + | |
− | नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[60]<br>
| + | |
− | धीरे-धीर वह हुआ पार<br>
| + | |
− | तारा-द्युति से बँध अन्धकार;<br>
| + | |
− | एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;<br>
| + | |
− | लख रत्नावली खुली सहास;<br>
| + | |
− | अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;<br>
| + | |
− | बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[61]<br>
| + | |
− | "हो गयी रतन, कितनी दुर्बल,<br> | + | |
− | चिन्ता में बहन, गयी तू गल<br>
| + | |
− | माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की<br>
| + | |
− | हैं विकल देखने को सत्वर<br>
| + | |
− | सहेलियाँ सब, ताने देकर<br>
| + | |
− | कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकी"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[62]<br>
| + | |
− | "तुझसे पीछे भेजी जाकर<br>
| + | |
− | आयीं वे कई बार नैहर;<br>
| + | |
− | पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ?<br>
| + | |
− | हम कई बार आ-आकर घर<br>
| + | |
− | लौटे पाकर झूठे उत्तर;<br>
| + | |
− | क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ?<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[63]<br>
| + | |
− | "आँसुओं भरी माँ दुख के स्वर<br>
| + | |
− | बोलीं, रतन से कहो जाकर,<br>
| + | |
− | क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ?<br>
| + | |
− | जामाताजी वाली ममता<br>
| + | |
− | माँ से तो पाती उत्तमता।"<br>
| + | |
− | बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो-<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[64]<br>
| + | |
− | "कुछ ही दिन को हूँ कल-द्रुम;<br>
| + | |
− | छू लूँ पद फिर कह देना तुम।"<br>
| + | |
− | बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को;<br>
| + | |
− | फिर किया अनावश्यक प्रलाप,<br>
| + | |
− | जिसमें जैसी स्नेह की छाप !<br>
| + | |
− | पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[65]<br>
| + | |
− | "हम बिना तुम्हारे आये घर,<br>
| + | |
− | गाँव की दृष्टि से गये उतर;<br>
| + | |
− | क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला<br>
| + | |
− | केवल कहने को है नैहर?-<br>
| + | |
− | दे सकता नहीं स्नेह-आदर?-<br>
| + | |
− | पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[66]<br>
| + | |
− | उस प्रतिमा का, आया तब खुल<br>
| + | |
− | मर्यादागर्भित धर्म विपुल,<br>
| + | |
− | धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन,<br>
| + | |
− | वह घेर-घेर निस्सीम गगन<br>
| + | |
− | उमड़े भावों के घन पर घन,<br>
| + | |
− | फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[67]<br>
| + | |
− | बोली वह, मृदु-गम्भीर-घोष,<br>
| + | |
− | "मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।"<br>
| + | |
− | जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता,<br>
| + | |
− | अंक में उसी के आज लीन-<br>
| + | |
− | निज मर्यादा पर समासीन;<br>
| + | |
− | दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[68]<br>
| + | |
− | बोला भाई, तो "चलो अभी,<br>
| + | |
− | अन्यथा, न होंगे सफल कभी<br>
| + | |
− | हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता।<br>
| + | |
− | जब लौटें वह, हम करें पार<br>
| + | |
− | राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।"<br>
| + | |
− | चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[69]<br>
| + | |
− | लेते सौदा जब खड़े हाट,<br>
| + | |
− | तुलसी के मन आया उचाट;<br>
| + | |
− | सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको;<br>
| + | |
− | जब देखो, तब द्वार पर खड़े<br>
| + | |
− | उधार लाये हम, चले बड़े !<br>
| + | |
− | दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनक ?<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[70]<br>
| + | |
− | सामग्री ले लौटे जब घर,<br>
| + | |
− | देखा नीलम-सोपानों पर<br>
| + | |
− | नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर;<br>
| + | |
− | श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत,<br>
| + | |
− | अपने सुख से ज्यों सुमन भीत;<br>
| + | |
− | गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[71]<br>
| + | |
− | देखा वह नहीं प्रिया जीवन;<br>
| + | |
− | नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन;<br>
| + | |
− | आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के<br>
| + | |
− | अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य,<br>
| + | |
− | निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म !<br>
| + | |
− | नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[72]<br>
| + | |
− | यह नहीं आज गृह, छाया-उर,<br>
| + | |
− | गीति से प्रिया की मुखर, मधुर;<br>
| + | |
− | गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण;<br>
| + | |
− | व्यंजित नयनों का भाव सघन<br>
| + | |
− | भर रंजित जो करता क्षण-क्षण;<br>
| + | |
− | कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[73]<br>
| + | |
− | वह आज हो गयी दूर तान,<br>
| + | |
− | इसलिए मधुर वह और गान,<br>
| + | |
− | सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के;<br>
| + | |
− | छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान,<br>
| + | |
− | पग उठे उसी मग को अजान,<br>
| + | |
− | कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[74]<br>
| + | |
− | मग में पिक-कुहरिल डाल,<br>
| + | |
− | हैं हरित विटप सब सुमन - माल,<br>
| + | |
− | हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित।<br>
| + | |
− | पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात,<br>
| + | |
− | हैं चमक रहे सब कनक-गात,<br>
| + | |
− | बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[75]<br>
| + | |
− | धूसरित बाल-दल, पुण्य-रेणु,<br>
| + | |
− | लख चरण-वारण-चपल धेनु,<br>
| + | |
− | आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की;<br>
| + | |
− | वह यमुना-तट, वह वृन्दावन,<br>
| + | |
− | चपलानन्दित यह सघन गगन;<br>
| + | |
− | गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[76]<br>
| + | |
− | सुनते सुख की वंशी के सुर,<br>
| + | |
− | पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;<br>
| + | |
− | लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;<br>
| + | |
− | बैठाला देकर मान-पान;<br>
| + | |
− | कुछ जन बतलाये कान-कान;<br>
| + | |
− | सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[77]<br>
| + | |
− | जल गये व्यंग्य से सकल अंग,<br>
| + | |
− | चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,<br>
| + | |
− | पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;<br>
| + | |
− | पति की इस मति-गति से मरकर,<br>
| + | |
− | उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,<br>
| + | |
− | रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[78]<br>
| + | |
− | बोली मन में होकर अक्षम,<br>
| + | |
− | रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !<br>
| + | |
− | लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;<br>
| + | |
− | खींचता छोर, यह कौन ओर<br>
| + | |
− | पैठा उनमें जो अधम चौर ?<br>
| + | |
− | खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[79]<br>
| + | |
− | कुछ काल रहा यों स्तब्ध भवन,<br>
| + | |
− | ज्यों आँधी के उठने का क्षण;<br>
| + | |
− | प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को<br>
| + | |
− | ले चली साथ भावज हरती<br>
| + | |
− | निज प्रियालाप से वश करती,<br>
| + | |
− | वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[80]<br>
| + | |
− | जेंए फिर चल गृह के सब जन,<br>
| + | |
− | फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;<br>
| + | |
− | प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल<br>
| + | |
− | पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग<br>
| + | |
− | सुनहला भरे पहला सुहाग,<br>
| + | |
− | रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[81]<br>
| + | |
− | कवि-रुचि में घिर छलकता रुचिर,<br>
| + | |
− | जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-<br>
| + | |
− | बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,<br>
| + | |
− | लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु<br>
| + | |
− | लहराया जो उर मधुर सिन्धु,<br>
| + | |
− | विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[82]<br>
| + | |
− | अस्तु रे, विवश, मारुत-प्रेरित,<br>
| + | |
− | पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित<br>
| + | |
− | घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;<br>
| + | |
− | उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,<br>
| + | |
− | लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च<br>
| + | |
− | वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[83]<br>
| + | |
− | बिखरी छूटी शफरी-अलकें,<br>
| + | |
− | निष्पात नयन-नीरज पलकें,<br>
| + | |
− | भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,<br>
| + | |
− | निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,<br>
| + | |
− | जागी योगिनी अरूप-लग्न,<br>
| + | |
− | वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।<br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[84]<br>
| + | |
− | कुछ समय अनन्तर, स्थित रहकर<br>,
| + | |
− | स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर<br>
| + | |
− | स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;<br>
| + | |
− | अचपल ध्वनि की चमकी चपला,<br>
| + | |
− | बल की महिमा बोली अबला,<br>
| + | |
− | जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[85]<br>
| + | |
− | "धिक धाये तुम यों अनाहूत,<br>
| + | |
− | धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,<br>
| + | |
− | राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !<br>
| + | |
− | हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,<br>
| + | |
− | वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !<br>
| + | |
− | कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"<br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[86]<br>
| + | |
− | जागा, जागा संस्कार प्रबल,<br>
| + | |
− | रे गया काम तत्क्षण वह जल,<br>
| + | |
− | देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;<br>
| + | |
− | इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,<br>
| + | |
− | हो गया भस्म वह प्रथम भान,<br>
| + | |
− | छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[87]<br>
| + | |
− | देखा, शारदा नील-वसना<br>
| + | |
− | हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,<br>
| + | |
− | जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,<br>
| + | |
− | वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर<br>
| + | |
− | फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,<br>
| + | |
− | यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[88]<br>
| + | |
− | दृष्टि से भारती से बँधकर<br>
| + | |
− | कवि उठता हुआ चला ऊपर;<br>
| + | |
− | केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;<br>
| + | |
− | धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर<br>
| + | |
− | धूसर समुद्र शशि-ताराहर,<br>
| + | |
− | सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ::[89]<br>
| + | |
− | चमकी तब तक तारा नवीन,<br>
| + | |
− | द्युति-नील-नील, जिसमें विलीन
| + | |
− | हो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;<br>
| + | |
− | आभा भी क्रमशः हुई मन्द,<br>
| + | |
− | निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;<br>
| + | |
− | आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।<br><br>
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− | ::[90]<br>
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− | थे मुँदे नयन, ज्ञानोन्मीलित,<br>
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− | कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;<br>
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− | अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;<br>
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− | जिस कलिका में कवि रहा बन्द,<br>
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− | वह आज उसी में खुली मन्द,<br>
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− | भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।<br><br>
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− | ::[91]<br>
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− | जब आया फिर देहात्मबोध,<br>
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− | बाहर चलने का हुआ शोध,<br>
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− | रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,<br>
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− | खोलती मृदुल दल बन्द सकल<br>
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− | गुदगुदा विपुल धारा अविचल<br>
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− | बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-<br><br>
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− | ::[92]<br>
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− | बाजीं बहती लहरें कलकल,<br>
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− | जागे भावाकुल शब्दोच्छल,<br>
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− | गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल<br>
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− | सूना उर ऋषियों का ऊना<br>
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− | सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,<br>
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− | आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।<br><br>
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− | ::[93]<br>
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− | जागो, जागो आया प्रभात,<br>
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− | बीती वह, बीती अन्ध रात,<br>
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− | झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल<br>
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− | बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,<br>
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− | तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,<br>
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− | आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।<br><br>
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− | ::[94]<br>
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− | होगा फिर से दुर्धर्ष समर<br>
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− | जड़ से चेतन का निशिवासर,<br>
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− | कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर<br>
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− | भारती इधर, हैं उधर सकल<br>
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− | जड़ जीवन के संचित कौशल<br>
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− | जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।<br><br>
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− | ::[95]<br>
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− | हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न<br>
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− | छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न<br>
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− | वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,<br>
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− | रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन<br>
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− | संचित कर करता है वर्षण,<br>
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− | लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।<br><br>
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− | ::[96]<br>
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− | देश-काल के शर से बिंधकर<br>
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− | यह जागा कवि अशेष-छविधर<br>
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− | इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी<br>
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− | निश्चेतन, निज तन मिला विकल,<br>
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− | छलका शत-शत कल्मष के छल<br>
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− | बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।<br><br>
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− | ::[97]<br>
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− | तम के अमार्ज्य रे तार-तार<br>
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− | जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार<br>
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− | जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो<br>
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− | इस कर अपने कारुणिक प्राण<br>
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− | कर लो समक्ष देदिप्यमान-<br>
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− | दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।<br><br>
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− | ::[98]<br>
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− | क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना,<br>
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− | कवि ने निज मन भाव में गुना,<br>
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− | साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,<br>
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− | देखा सामने, मूर्ति छल-छल<br>
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− | नयनों में छलक रही, अचपल,<br>
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− | उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।<br><br>
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− | ::[99]<br>
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− | जगमग जीवन का अन्त्य भाष-<br>
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− | जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,<br>
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− | अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का<br>
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− | मेरा उससे गृह के भीतर,<br>
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− | देखूँगा नहीं कभी फिरकर,<br>
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− | लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।<br><br>
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− | ::[100]<br>
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− | चल मन्द चरण आये बाहर,<br>
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− | उर में परिचित वह मूर्ति सुघर<br>
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− | जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-<br>
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− | संकुचित, खोलती श्वेत पटल<br>
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− | बदली, कमला तिरती सुख-जलष<br>
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− | प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।<br><br>
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