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"जीने का कोई हासिल न मिला आखिर यह उम्र तमाम हुई / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
 
|संग्रह=हर सुबह एक ताज़ा गुलाब / गुलाब खंडेलवाल
 
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जीने का कोई हासिल न मिला आखिर यह उम्र तमाम हुई 
 
फिर दिन निकला, फिर रात ढली, फिर सुबह हुई, फिर शाम हुई
 
 
फूलों से लदा था बाग़ जहाँ हम-तुम कल झूमते आये थे
 
अब राम ही जाने कब इसकी, पत्ती-पत्ती नीलाम हुई!
 
 
था फ़ासिला चार ही अंगुल का, हाथों से किसी के आँचल का
 
वे सामने पर आये न कभी, सजने में ही रात तमाम हुई
 
 
कल भूल से हमने डाल में से एक फूल गुलाब का तोड़ लिया
 
सुनते हैं इसी एक बात पे कल, वह डाल बहुत बदनाम हुई
 
<poem>
 

02:52, 7 जुलाई 2011 के समय का अवतरण