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"उलझ गए धागे / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर
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10:13, 11 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
रेशम की मीनारें
खादी के धागे
बढ़ता ही गया शहर आगे-ही-आगे
माँगे थे आँगन ने
धूप के अँगरखे
अँधियारे कात रहे
सोने के चरखे
क़ैद बंद कमरों में आइने अभागे
करवट ले सूर्य गए
धुंधों के घर में
साँझ हुई है अक्सर
ठीक दोपहर में
नींद भरी ड्योढ़ी पर कौन भला जागे
उलझन के तार कई
और हैं बहाने
किरणों की बस्ती के
अँधे हैं बाने
सारी पोशाकों के उलझ गए तागे