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गंगाराम कलुण्डिया भारतीय सेना के देशभक्त सैनिक थे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उन्होंने लड़ाई लड़ी और राष्ट्रपति द्वारा वीरता पुरस्कार से सम्मानित भी हुए। तत्पश्चात् सूबेदार होकर सेवानिवृत्त हुए। अपने क्षेत्र पं० सिंहभूम के कोल्हान में खरकई नदी में सरकार की ईचा बाँध परियोजना से विस्थापित हो रहे आदिवासियों का इन्होंने नेतृत्व किया तथा विस्थापन के विरूद्ध आन्दोलन चलाया। प्रतिरोध के बढ़ते तेवर को देख पुलिस ने 3 अप्रैल 1982 को शीर्ष नेता गंगाराम कलुण्डिया की गोली मार कर हत्या कर दी और आन्दोलन दबा दिया गया।
यह कविता गंगाराम कलुण्डिया और उन्हीं की तरह अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को समर्पित।
गंगाराम !
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से
तुम्हें तो दुश्मन की सेना भी
खरोंच नहीं पाई थी सीमा पर ।
दनदनाती गोलियों
धमकते गोलों और क्षत-विक्षत लाशों के बीच
सीमा पर
लुढ़कते-गुढ़कते- रेंगते
अपनी बन्दूक थामे रहनेवाले योद्धा थे
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से ।
ख़ून के छीटों के बीच याद आता रहा होगा तुम्हें
बेर की काँटीली डालियों पर
फुदकते गाँव के बच्चे
औरतों के साथ
चट्टान के ओखल में मडुवा कूटती
पत्नी का साँझाया चेहरा
और देश के करोड़ों लोगों की
आँखों में तैरती मछरी की बेबसी
दुश्मनों के गोला-बारूद की
लहरों को रोकने के लिए
गंगाराम, तुम बाँध थे
तुम कहाँ मरने वाले थे
पुलिस की गोली से ।
गंगाराम !
तुमने बाँध दी थी बाँध
अपनी छाती की दीवार से
और उसमें अठखेलियाँ करने लगी थीं
देश के मानचित्र की रेखाएँ
उनकी अठखेलियों में
तुम्हें याद आती थीं
अपने बच्चों की शरारतें
उनकी शरारतों के लिए
तुम जान देने वाले पिता थे
पिता की भूमिका में
देश के वीर सपूत थे
तुम कहाँ करने वाले थे
पुलिस की गोली से ।