भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत! (दशम सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
मैं करता सबको आत्मसात  
 
मैं करता सबको आत्मसात  
 
तुम बन सुषमा की मलय-वात
 
तुम बन सुषमा की मलय-वात
बरसाती चिर यौवन वसंत
+
बरसाती चिर-यौवन-वसंत
  
 
इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
 
इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
 
प्रिय! निश्चल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!  
 
प्रिय! निश्चल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!  
 
<poem>
 
<poem>

01:55, 15 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्चल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!

उर को आशा के गान दिये
आशा को नूतन प्राण दिये
प्राणों को वर क्या-क्या न दिये
रँग दिये स्नेह से दिग्-दिगंत
 
अब भी कोई दूरस्थ कुंज
तुम खड़ी जहाँ पर ज्योति-पुंज
अधरों पर स्मिति के रजत गुंज
नयनों में मादकता अनंत
 
जीवन का चिर-चंचल प्रपात
मैं करता सबको आत्मसात
तुम बन सुषमा की मलय-वात
बरसाती चिर-यौवन-वसंत

इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्चल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!