भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इस बस्ती के लोग / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश यादव }} {{KKCatKavita‎}} <poem> बचपन में पढ़ी और सुनी थी …)
 
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<poem>
 
<poem>
  
बचपन में
+
भरी बरसात में
पढ़ी और सुनी थी
+
बेच डाले हैं अपने छोटे-छोटे घर
प्यासे कौवे की कहानी
+
खरीद लाये हैं एक बड़ा-सा आकाश
जिसने
+
इस बस्ती के लोग
 +
बैठे हैं जिन डालों पर
 +
काटते उन्हीं को दिन-रात
 +
कालिदास होने का भ्रम पाले हुए हैं
 +
इस बस्ती के लोग
 +
अक्सर इनकी चीखों का
 +
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
 +
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
 +
इस बस्ती के लोग
 +
चूल्हे - इन्हीं के होते हैं
 +
जिनमें उगती है घास
 +
सहलाते हैं हरापन इसका
 +
थकती नहीं नज़रें इनकी
 +
जाने किस नस्ल के रोमानी हैं
 +
इस बस्ती के लोग.
  
  
 
</poem>
 
</poem>

21:40, 19 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


भरी बरसात में
बेच डाले हैं अपने छोटे-छोटे घर
खरीद लाये हैं एक बड़ा-सा आकाश
इस बस्ती के लोग
बैठे हैं जिन डालों पर
काटते उन्हीं को दिन-रात
कालिदास होने का भ्रम पाले हुए हैं
इस बस्ती के लोग
अक्सर इनकी चीखों का
इनके दर्दों से कोई रिश्ता नहीं होता
किसी और के जुकाम पर बेहाल होते हैं
इस बस्ती के लोग
चूल्हे - इन्हीं के होते हैं
जिनमें उगती है घास
सहलाते हैं हरापन इसका
थकती नहीं नज़रें इनकी
जाने किस नस्ल के रोमानी हैं
इस बस्ती के लोग.