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"पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - २" के अवतरणों में अंतर

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भारत-वसुधा द्वारा वह।
 
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भव कर्म-अकर्म-व्यवस्था॥15॥
 
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00:34, 4 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

पच्ची होता रहता है।
जिसके निमित्त जग माथा।
अविदित रहस्य-परिपूरित।
वह है वह अद्भुत गाथा॥3॥

खोले जिसका अवगुंठन।
खुलता न कभी दिखलाया।
वह है वह प्रकृति-वधूटी।
जिसकी है मोहक माया॥4॥

जैसी कि लोक-अभिरुचि है।
वह नहीं उठ सकी वैसी।
भव-रंगमंच की वह है।
अवरोधा-यवनिका ऐसी॥5॥

कैसे खुलता वह ताला।
जिसने बाधा है डाली।
जो किसी को न मिल पाई।
वह है विचित्र वह ताली॥6॥

जिस जगह अगति के द्वारा।
जाती है मति-गति डाँटी।
है जहाँ प्रगति न दृगों की।
वह है वह दुर्गम घाटी॥7॥

मन मनन नहीं कर पाता।
मतिमान मंद है बनता।
कब बोध-सुफल कहलाई।
भव कर्म-अकर्म-गहनता॥8॥

(4)

जो पूज्यपाद कहलाता।
गुरुदेव गया जो माना।
अपने शिष्यों को जिसने।
सुत के समान ही जाना॥1॥

जिसके प्रसाद से कितने।
दिव्यास्त्रा हाथ थे आये।
जिसकी गौरव-गाथाएँ।
थे अयुत-मुखों ने गाये॥2॥

वह वृध्द निरस्त्रा तपस्वी।
संतान-शोक से कातर।
हत हुआ कपट-कौशल से।
हो गया अलग धाड़ से सर॥3॥

जो सत्यसंधा था जिसका।
व्रत धर्म-धुरंधरता था।
उसके असत्य के बल से।
गुरुपत्नी हुई अनाथा॥4॥

'ए सारी बातें' जो हैं।
वह आहव-नीति-प्रकाशी।
संकेत से हुई जिनके।
वे थे भूभार-विनाशी॥5॥

बहु रक्षित राजसभा में।
जो थी महती कहलाती।
रजवती एक कुलबाला।
है पकड़ मँगाई जाती॥6॥

चिढ़ एक महाबलशाली।
था उसको बहुत सताता।
उस निरपराधा महिला का।
कच खींचा-नोचा जाता॥7॥

वह रोती-चिल्लाती थी।
पर कौन मदद को आता।
उस भरी सभा में उसको।
था नग्न बनाया जाता॥8॥

थे वहाँ महज्जन कितने।
पर दिखा सके न महत्ता।
अबला शरीर पर विजयी।
हो गयी आसुरी सत्ता॥9॥

थी अर्ध्दनिशा, छाया था।
सब ओर घना अंधियाला
लग गया चेतना पर था।
निद्रा-देवी का ताला॥10॥

सब जगत पड़ा सोता था।
पर कुछ वीरताभिमानी।
जगते थे इस असमय में।
रचने को क्रान्ति-कहानी॥11॥

कर प्रबल प्रमुख को आगे।
घुस-घुस शिविरों में कितने।
उनका वधा किया उन्होंने।
निद्र्राभिभूत थे जितने॥12॥

जो निरापराधा बालक थे।
जिनकी थीं करुण पुकारें।
जो थे निरीह उन पर भी।
गिर गईं उठी तलवारें॥13॥

जो इस प्रसिध्द नाटक का।
है सूत्रधार कहलाता।
भारत-वसुधा द्वारा वह।
चिरजीवी पद है पाता॥14॥

कर्तव्य-विमूढ कगी।
क्यों नहीं विचित्र अवस्था।
है भरी विषमताओं से।
भव कर्म-अकर्म-व्यवस्था॥15॥