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"पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ४" के अवतरणों में अंतर

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14:21, 11 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

विमलसलिला सरिताएँ क्यों।
मधुर कल-कल ध्वनि करती हैं।
क्यों ललित लीलामय लहरें।
मंजु भावों से भरती हैं॥5॥

हिम-मुकुट हीरक-चय-मंडित।
नगनिकर ने क्यों पाया है।
धावलता मिस वसुधा-तल पर।
क्षीर-निधिक क्यों लहराया है॥6॥

सर कमल-कुल लोचन खोले।
किसे अवलोकन करते हैं।
कान्त कूलों पर सारस क्यों।
सरसता-सहित विचरते हैं॥7॥

पहनकर सजी सिता साड़ी।
तारकावलि मुक्तामाला।
आ रही है क्या विधु-वदना।
शरद-ऋतु-सी सुरपुर-बाला॥8॥

कुसुमाकर
(15)

बनाते क्यों हैं मन को मुग्ध।
गूँजते फिरते मत्त मिलिन्द।
कोंपलों से बन-बन बहु कान्त।
भ फल-फूलों से तरु-वृन्द॥1॥

अनारों-कचनारों के पेड़।
लाभ कर अनुरंजन का माल।
किस ललक का रखते हैं रंग।
लाल फूलों से होकर लाल॥2॥

कलाएँ कौन लाल की देख।
कर रही हैं लोकोत्तर काम।
कालिमा-अंक को बना कान्त।
पलाशों की लालिमा ललाम॥3॥

पा गये रंजित रुचिर पराग।
किसलिए हैं पुलकित जलजात।
मिले बहु विकसित कुसुम-समूह।
हुआ क्यों लसित लता का गात॥4॥

क्यों गुलाबी रंगत में डूब।
गुलाबों में झलका अनुराग।
खिले हैं क्यों गेंदे के फूल।
बाँधाकर सिर पर पीली पाग॥5॥

तितलियाँ क्यों करती हैं नृत्य।
पहनकर रंग-बिरंगे चीर।
वहन कर सौरभ का संभार।
चल रहा है क्यों मलय-समीर॥6॥

दिशाओं को कर ध्वनित नितान्त।
सुनाता है क्यों पंचम तान।
बनाता है क्यों बहु उन्मत्ता।
कोकिलों का उन्मादक गान॥7॥

याद कर किसका अनुपम रूप।
गयी अपने तन की छवि भूल।
मुसकुराई क्यों किसपर रीझ।
रंगरलियाँ कर कलियाँ फूल॥8॥

हुआ क्यों वासर सरस अपार।
बनी क्यों रजनी बहु मधुमान।
मारता है शर क्यों रतिकान्त।
कान तक अपनी तान कमान॥9॥

आ गया कुसुमाकर ले साज।
प्रकृति का हुआ प्रचुर शृंगार।
धारा बन गयी परम कमनीय।
पहनकर नव कुसुमों का हार॥10॥

कमनीय कला
(16)

रंजिता राका-रजनी-सी।
बने उससे रंजनरत मति।
सरस बन जाए रस बरसे।
रसिक जन की रहस्यमय रति॥1॥

तामसी मानस का तम हर।
जगाये ज्योति अलौकिकतम।
चुराती रहे चित्त चसके।
चमककर चारु चाँदनी-सम॥2॥

सुधा बरसा-बरसा बहुधा।
क वसुधा का बहुत भला।
कलानिधि कान्त कला-सी बन।
कामिनी की कमनीय कला॥3॥

अमरपद
(17)

कवित्ता

कोई काल कैसे नाम उनका कगा लोप।
जिनको प्रसिध्द कर पाती है परम्परा।
जिनकी रसाल रचनाओं से सरस बन
रहता सदैव याद पादप हरा-भरा।
'हरिऔध' होते हैं अमर कविता से कवि।
कमनीय कीत्तिक है अमरता सहोदरा
सुधा हैं बहाते कवि-कुल वसुधातल में।
सुधा कवि-कुल को पिलाती है वसुंधरा॥1॥

चिरजीवी कैसे वे रसिक जन होंगे नहीं
नाना रस ले-ले जो रसायन बनाते हैं।
लोग क्यों सकेंगे भूल उन्हें जो लगन साथ
कीत्तिक-वेलि उर-आलबाल में लगाते हैं।
'हरिऔध' कैसे वे न जीवित रहेंगे सदा
जग में सजीव कविता जो छोड़ जाते हैं।
कैसे वे मरेंगे जो अमर रचनाएँ कर
मर मेदिनी ही में अमरपद पाते हैं॥2॥

जले तन
(18)

बावले बन जाते थे हम।
देख पाते जब नहीं बदन।
याद हैं वे दिन भी हमको।
वारते थे जब हम तन-मन॥1॥

कलेजे छिले पड़े छाले।
हो रही है बेतरह जलन।
आग है सुलग रही जी में।
कहायें क्यों न अब जले तन॥2॥