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"बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गये हैं / 'अना' क़ासमी" के अवतरणों में अंतर
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− | बचा ही क्या है हयात में अब सुनहरे दिन तो निपट गये हैं
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− | यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हां हूं में कट गये हैं
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− | हयात ही थी सो बच गया हूं वगरना सब खेल हो चुका था
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− | तुम्हारे तीरों ने कब ख़ता की हमीं निशाने से हट गये हैं
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− | हरेक जानिब से सोच कर ही चढ़ाई जाती हैं आस्तीनें
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− | वो हाथ लम्बे थे इस क़दर के हमारे क़द ही सिमट गये हैं
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− | हमारे पुरखों की ये हवेली अजीब क़ब्रों सी हो गयी है
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− | थे मेरे हिस्से में तीन कमरे जो आठ बेटों में बट गये हैं
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− | मुहब्बतों की वो मंजि़लें हों, के जाहो-हशमत की मसनदें हों
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− | कभी वहां फिर न मुड़ के देखा क़दम जहां से पलट गये हैं
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− | बड़े परीशा हैं ऐ मुहासिब तिरे हिसाबो किताब से हम
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− | किसे बतायें ये अलमिया अब कि ज़र्ब देने पे घट गये हैं
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− | मैं आज खुल कर जो रो लिया हूं तो साफ़ दिखने लगे हैं मंज़र
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− | ग़मों की बरसात हो चुकी है वो अब्र आंखों से छंट गये हैं
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− | वही नहीं एक ताज़ा दुश्मन, सभी को मिर्ची लगी हुई है
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− | हमें क्या अपना बनाया तुमने कई नज़र में खटक गये हैं
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18:24, 12 सितम्बर 2011 का अवतरण