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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
 
<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अच्‍छे बच्‍चे ('''रचनाकार:''' [[नरेश सक्सेना]])</div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : ख़ूबसूरत दिन ('''रचनाकार:''' [[स्वप्निल श्रीवास्तव]])</div>
 
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अच्‍छे बच्‍चे
 
  
कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
+
उसने खोल दी खिड़कियाँ
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
+
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
+
और मचलते तो हैं ही नहीं
+
  
बड़ों का कहना मानते हैं
+
ढेर-सी ताज़ा हवाएँ दौड़ कर आ गईं घर में
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
+
इतने अच्छे होते हैं
+
  
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
+
ढेर-सी धूप आ गई
और मिलते ही
+
 
उन्हें ले आते हैं घर
+
और घर के कोने-अतरे में बिखरने लगी
अक्सर
+
 
तीस रुपये महीने और खाने पर।
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टंगे हुए कलैंडर में
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उसने घेर दी आज की तारीख़
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तस्वीरों पर लगी धूल को साफ़ किया
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रैक पर सजा कर रख दीं क़िताबें
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खिड़की के बाहर
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हिलती हुई टहनी को देखा और कहा
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'तुम भी आओ मेरे घर में'
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टहनी पर बैठी हुई बुलबुल
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उल्लास में फ़ुदकती रही
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पहली बार वह अपने घर में देख रहा था
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इतना ख़ूबसूरत दिन ।
  
 
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11:25, 15 अक्टूबर 2011 का अवतरण

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सप्ताह की कविता
शीर्षक : ख़ूबसूरत दिन (रचनाकार: स्वप्निल श्रीवास्तव)

उसने खोल दी खिड़कियाँ

ढेर-सी ताज़ा हवाएँ दौड़ कर आ गईं घर में

ढेर-सी धूप आ गई

और घर के कोने-अतरे में बिखरने लगी


टंगे हुए कलैंडर में

उसने घेर दी आज की तारीख़

तस्वीरों पर लगी धूल को साफ़ किया

रैक पर सजा कर रख दीं क़िताबें


खिड़की के बाहर

हिलती हुई टहनी को देखा और कहा

'तुम भी आओ मेरे घर में'

टहनी पर बैठी हुई बुलबुल

उल्लास में फ़ुदकती रही


पहली बार वह अपने घर में देख रहा था

इतना ख़ूबसूरत दिन ।