भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हे राम! / विजय कुमार पंत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार पंत }} {{KKAnthologyChand}} {{KKCatKavita}} <poem> ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 26: पंक्ति 26:
  
 
गाँधी  किताबों, चलचित्रों  में  बिकता  है
 
गाँधी  किताबों, चलचित्रों  में  बिकता  है
देखता  है  अपने  आजाद  नौनिहालों  को सिसकता  है
+
देखता  है  अपने  आजाद  नौनिहालों  को, सिसकता  है
 
कृष्ण  भी  डर  कर  छोड़  चुके  हैं  रण भूमि
 
कृष्ण  भी  डर  कर  छोड़  चुके  हैं  रण भूमि
कंस  भी  इतने  कन्सो  को  देख कर  झिझकता  है
+
कंस  भी  इतने  कन्सो  को  देख झिझकता  है
 
मार -कट  लूटपाट  भक्त  करता  है
 
मार -कट  लूटपाट  भक्त  करता  है
 
नहीं  है  ये  विद्वान  रावन  का  काम
 
नहीं  है  ये  विद्वान  रावन  का  काम
 
हे  राम  !
 
हे  राम  !
 
</poem>
 
</poem>

08:48, 17 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण

गर्दो गुबार में खो गए सारे नाम
बेच डाले कारोबारियों ने ढंग तमाम
मर्यादा तार-तार नंगा आवाम
पैदा होने वाला कहता है
हे राम !

क्यूँ ले आये मुझे जहन्नुम में
क्यूँ कर डाली मेरे जीवन की शाम
मैं भी डूब जाऊँगा इस सैलाब में
मिटाता रहूँगा तेरा नाम
हे राम !

तेरी मर्यादा यहाँ रोज़ तार-तार होती है
बेटी बाप के साथ रहने में भी रोती है
हर खंडहर, घर, महल लूटता है इज्ज़त
सिसकियाँ रह-रह कर घाव धोती हैं
महात्मा जूते खाते हैं, चोरो को होता सलाम
हे राम !

गाँधी किताबों, चलचित्रों में बिकता है
देखता है अपने आजाद नौनिहालों को, सिसकता है
कृष्ण भी डर कर छोड़ चुके हैं रण भूमि
कंस भी इतने कन्सो को देख झिझकता है
मार -कट लूटपाट भक्त करता है
नहीं है ये विद्वान रावन का काम
हे राम  !