"सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 19: | पंक्ति 19: | ||
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया, | तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया, | ||
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप | ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप | ||
− | और शान्त हो | + | और शान्त हो रहा। |
लज्जा से अरुण हुई | लज्जा से अरुण हुई | ||
तरुण दिशाओं ने | तरुण दिशाओं ने | ||
− | आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह ! | + | आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह! |
क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने | क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने | ||
मुख-लाल कुछ उठाया | मुख-लाल कुछ उठाया | ||
फिर मौन सिर झुकाया | फिर मौन सिर झुकाया | ||
− | ज्यों – 'क्या मतलब ?' | + | ज्यों – 'क्या मतलब?' |
एक बार सहमी | एक बार सहमी | ||
ले कम्पन, रोमांच वायु | ले कम्पन, रोमांच वायु | ||
फिर गति से बही | फिर गति से बही | ||
− | जैसे कुछ नहीं हुआ ! | + | जैसे कुछ नहीं हुआ! |
मैं तटस्थ था, लेकिन | मैं तटस्थ था, लेकिन | ||
− | ईश्वर की शपथ ! | + | ईश्वर की शपथ! |
सूरज के साथ | सूरज के साथ | ||
− | हृदय डूब गया | + | हृदय डूब गया मेरा। |
अनगिन क्षणों तक | अनगिन क्षणों तक | ||
स्तब्ध खड़ा रहा वहीं | स्तब्ध खड़ा रहा वहीं | ||
− | क्षुब्ध हृदय | + | क्षुब्ध हृदय लिए। |
औ' मैं स्वयं डूबने को था | औ' मैं स्वयं डूबने को था | ||
स्वयं डूब जाता मैं | स्वयं डूब जाता मैं | ||
पंक्ति 47: | पंक्ति 47: | ||
धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को | धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को | ||
जोतता-बोता हुआ, | जोतता-बोता हुआ, | ||
− | हँसता, ख़ुश होता | + | हँसता, ख़ुश होता हुआ।' |
− | ईश्वर की शपथ ! | + | ईश्वर की शपथ! |
इस अँधेरे में | इस अँधेरे में | ||
उसी सूरज के दर्शन के लिए | उसी सूरज के दर्शन के लिए | ||
जी रहा हूँ मैं | जी रहा हूँ मैं | ||
− | कल से अब तक ! | + | कल से अब तक! |
</poem> | </poem> |
12:11, 30 नवम्बर 2011 का अवतरण
सूरज जब
किरणों के बीज-रत्न
धरती के प्रांगण में
बोकर
हारा-थका
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
सिन्धु के किनारे
निज थकन मिटाने को
नए गीत पाने को
आया,
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप
और शान्त हो रहा।
लज्जा से अरुण हुई
तरुण दिशाओं ने
आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!
क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने
मुख-लाल कुछ उठाया
फिर मौन सिर झुकाया
ज्यों – 'क्या मतलब?'
एक बार सहमी
ले कम्पन, रोमांच वायु
फिर गति से बही
जैसे कुछ नहीं हुआ!
मैं तटस्थ था, लेकिन
ईश्वर की शपथ!
सूरज के साथ
हृदय डूब गया मेरा।
अनगिन क्षणों तक
स्तब्ध खड़ा रहा वहीं
क्षुब्ध हृदय लिए।
औ' मैं स्वयं डूबने को था
स्वयं डूब जाता मैं
यदि मुझको विश्वास यह न होता –-
'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य
ज्योति-किरणों से भरा-पूरा
धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को
जोतता-बोता हुआ,
हँसता, ख़ुश होता हुआ।'
ईश्वर की शपथ!
इस अँधेरे में
उसी सूरज के दर्शन के लिए
जी रहा हूँ मैं
कल से अब तक!