भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"काम आ गई दीवानगी अपनी / क़तील" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=क़तील शिफ़ाई }} तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ ज...) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=क़तील शिफ़ाई | |रचनाकार=क़तील शिफ़ाई | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
+ | <poem> | ||
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते | तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते | ||
− | + | जो वाबस्ता हुए, तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते | |
− | जो वाबस्ता हुए,तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते | + | |
− | + | ||
− | + | ||
निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना | निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना | ||
− | |||
तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते | तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते | ||
− | |||
− | |||
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की | तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की | ||
− | |||
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते | तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते | ||
− | + | चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी | |
− | + | ||
− | चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी | + | |
− | + | ||
वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते | वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते | ||
− | |||
− | |||
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता | क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता | ||
− | + | तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते | |
− | तो | + | </poem> |
17:33, 30 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए, तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते
निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते