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"नंद-धाम खेलत हरि डोलत / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥<br>
 
बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥<br>
 
लै उठाइ अंचल गहि पोंछै, धूरि भरी सब देह ।<br>
 
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सूरज प्रभु जसुमति रज झारति,कहाँ भरी यह खेह ॥<br>
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सूरज प्रभु जसुमति रज झारति,कहाँ भरी यह खेह ॥<br><br>
  
 
भावार्थ :-- हरि नन्दभवनमें खेलते फिर रहे हैं । यशोदाजी घरके भीतर रसोई बना रही हैं, ये किलकारी मारते कुछ बोल रहे हैं । इसी समय माता यशोदाने मोहनको पुकारा - `लाल ! तू दौड़कर यहाँ क्यों नहीं आता ।' शब्द सुनकर पहिचान लिया कि मैया बुला रही है, इससे घुटनोंके बल चरण घसीटते चल पड़े । मैयाने गोदमें उठा लिया, धूलि भरा हुआ पूरा शरीर अञ्चलसे पोंछने लगीं । सूरदासजी कहतेहैं - मेरे स्वामीके शरीरमें लगीधूलि झाड़ती हुई यशोदाजी कहती हैं- `इतनी धूलि तुमने कहाँसे लपेट ली!'
 
भावार्थ :-- हरि नन्दभवनमें खेलते फिर रहे हैं । यशोदाजी घरके भीतर रसोई बना रही हैं, ये किलकारी मारते कुछ बोल रहे हैं । इसी समय माता यशोदाने मोहनको पुकारा - `लाल ! तू दौड़कर यहाँ क्यों नहीं आता ।' शब्द सुनकर पहिचान लिया कि मैया बुला रही है, इससे घुटनोंके बल चरण घसीटते चल पड़े । मैयाने गोदमें उठा लिया, धूलि भरा हुआ पूरा शरीर अञ्चलसे पोंछने लगीं । सूरदासजी कहतेहैं - मेरे स्वामीके शरीरमें लगीधूलि झाड़ती हुई यशोदाजी कहती हैं- `इतनी धूलि तुमने कहाँसे लपेट ली!'

22:41, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण

राग बिलावल 


नंद-धाम खेलत हरि डोलत ।
जसुमति करति रसोई भीतर, आपुन किलकत बोलत ॥
टेरि उठी जसुमति मोहन कौं, आवहु काहैं न धाइ ।
बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥
लै उठाइ अंचल गहि पोंछै, धूरि भरी सब देह ।
सूरज प्रभु जसुमति रज झारति,कहाँ भरी यह खेह ॥

भावार्थ :-- हरि नन्दभवनमें खेलते फिर रहे हैं । यशोदाजी घरके भीतर रसोई बना रही हैं, ये किलकारी मारते कुछ बोल रहे हैं । इसी समय माता यशोदाने मोहनको पुकारा - `लाल ! तू दौड़कर यहाँ क्यों नहीं आता ।' शब्द सुनकर पहिचान लिया कि मैया बुला रही है, इससे घुटनोंके बल चरण घसीटते चल पड़े । मैयाने गोदमें उठा लिया, धूलि भरा हुआ पूरा शरीर अञ्चलसे पोंछने लगीं । सूरदासजी कहतेहैं - मेरे स्वामीके शरीरमें लगीधूलि झाड़ती हुई यशोदाजी कहती हैं- `इतनी धूलि तुमने कहाँसे लपेट ली!'