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"लौटकर आओ चलें/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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− | लौटकर | + | लौटकर आओं चलें हम गाँव अपने, |
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जेब मे सिक्के भरे हैं कंकड़ों से | जेब मे सिक्के भरे हैं कंकड़ों से | ||
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व्यस्तता तन पर खिली परिधान बनकर | व्यस्तता तन पर खिली परिधान बनकर | ||
औपचारिक हो गयी है बन्दगी, | औपचारिक हो गयी है बन्दगी, | ||
− | + | मन बिंधे हैं शून्यता के सर्प ऐसे | |
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दिवस कोई चैन से कटता नहीं | दिवस कोई चैन से कटता नहीं | ||
− | + | व्यर्थ की मुस्कान से हैं अधर संवरे | |
बात के अन्दाज हैं तौले सधे, | बात के अन्दाज हैं तौले सधे, | ||
इस तरह हित साधना में मग्न जैसे | इस तरह हित साधना में मग्न जैसे | ||
− | + | सूर्य के पग अनवरत क्रम से बंधे, | |
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है तनावों का उछलता ज्वार मन में | है तनावों का उछलता ज्वार मन में | ||
− | किन्तु दिखता आज कुछ | + | किन्तु दिखता आज कुछ घटता नहीं |
चल रहे पुष्पक सरीखी गति पकड़कर | चल रहे पुष्पक सरीखी गति पकड़कर | ||
धन कुबेरों से मिले आवास है, | धन कुबेरों से मिले आवास है, | ||
रूढ़ियाँ होकर पराजित सर्प जैसी | रूढ़ियाँ होकर पराजित सर्प जैसी | ||
− | + | ले रही अब टोकरी में बास है, | |
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बीतता है हर दिवस अब हलचलों में | बीतता है हर दिवस अब हलचलों में | ||
पर कहीं उल्लास है दिखता नहीं | पर कहीं उल्लास है दिखता नहीं | ||
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22:21, 16 मार्च 2012 के समय का अवतरण
लौटकर आओं चले
लौटकर आओं चलें हम गाँव अपने,
अब हमारा मन कहीं लगता नहीं
जेब मे सिक्के भरे हैं कंकड़ों से
चक्र सी नियमित हुयी है जिन्दगी,
व्यस्तता तन पर खिली परिधान बनकर
औपचारिक हो गयी है बन्दगी,
मन बिंधे हैं शून्यता के सर्प ऐसे
दिवस कोई चैन से कटता नहीं
व्यर्थ की मुस्कान से हैं अधर संवरे
बात के अन्दाज हैं तौले सधे,
इस तरह हित साधना में मग्न जैसे
सूर्य के पग अनवरत क्रम से बंधे,
है तनावों का उछलता ज्वार मन में
किन्तु दिखता आज कुछ घटता नहीं
चल रहे पुष्पक सरीखी गति पकड़कर
धन कुबेरों से मिले आवास है,
रूढ़ियाँ होकर पराजित सर्प जैसी
ले रही अब टोकरी में बास है,
बीतता है हर दिवस अब हलचलों में
पर कहीं उल्लास है दिखता नहीं