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"ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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भावार्थ ;-- श्रीयशोदाजी अपने आँगनमें खड़ी हुई श्यामको गोदमें लेकर चन्द्रमा दिखला रही हैं - ` लाल! तुम रोते क्यों हो, मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ, देखो तो- भर आँख (भली प्रकार) देखनेसे यह (चंद्रमा) नेत्रों को शीतल करता है।' तब श्याम स्वयं चन्द्रमाकी ओर देखने लगे और अपने हाथ उठाउठाकर दिखलाने (उसी की ओर संकेत करने ) लगे । श्रीहरि मन-ही-मन यह सोचनेलगे कि `देखनेमें तो यह बड़ा सुन्दर है और मनको अच्छा बी लगता है; किंतु पता नहीं (स्वादमें) मीठा लगता है या खट्टा' मातासे उसे मँगा देनेको कहने लगे-`मुझे भूख लगी है, मैं चन्द्रमा को खाऊँगा, तू ला दे ! ला दे इसे! इस प्रकार इस प्रकार क्रोध करके झगड़ने (मचलने) लगे । यशोदाजी कहनेलगीं-`मैंने यह क्या किया, जो इसे चन्द्र दिखाया । अब तो मेरा यह मोहन रो रहा है और बहुत ही दुःखी हो रहा है ।' सूरदासजी कहते हैं कि यशोदाजी श्यामसुन्दरको समझा रही हैं, तथा आकाशमें उड़ती चिड़ियाँ उन्हें (बहलानेके लिये दिखला रही हैं ।
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भावार्थ ;-- श्रीयशोदा जी अपने आँगन में खड़ी हुई श्याम को गोद में लेकर चन्द्रमा दिखला रही हैं - ` लाल! तुम रोते क्यों हो, मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ, देखो तो- भर आँख (भली प्रकार) देखने से यह (चंद्रमा) नेत्रों को शीतल करता है।' तब श्याम स्वयं चन्द्रमा की ओर देखने लगे और अपने हाथ उठा उठाकर दिखलाने (उसी की ओर संकेत करने ) लगे । श्रीहरि मन-ही-मन यह सोचने लगे कि `देखने में तो यह बड़ा सुन्दर है और मन को अच्छा भी लगता है; किंतु पता नहीं (स्वाद में) मीठा लगता है या खट्टा' माता से उसे मँगा देने को कहने लगे-`मुझे भूख लगी है, मैं चन्द्रमा को खाऊँगा, तू ला दे ! ला दे इसे! इस प्रकार इस प्रकार क्रोध करके झगड़ने (मचलने) लगे । यशोदा जी कहने लगीं-`मैंने यह क्या किया, जो इसे चन्द्र दिखाया । अब तो मेरा यह मोहन रो रहा है और बहुत ही दुःखी हो रहा है ।' सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा जी श्यामसुन्दर को समझा रही हैं, तथा आकाश में उड़ती चिड़ियाँ उन्हें बहलाने के लिये दिखला रही हैं ।

00:03, 2 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण

राग कान्हरौ

ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहि लिये चंदा दिखरावत ।
रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौ धौं भरि नैन जुड़ावत ॥
चितै रहे तब आपुन ससि-तन, अपने के लै-लै जु बतावत ।
मीठौ लगत किधौं यह खाटौ, देखत अति सुंदर मन भावत ॥
मन-हीं-मन हरि बुद्धि करत हैं, माता सौं कहि ताहि मँगावत ।
लागी भूख, चंद मैं खैहौं, देहि-देहि रिस करि बिरुझावत ॥
जसुमति कहती कहा मैं कीनौं, रोवत मोहन अति दुख पावत ।
सूर स्याम कौं जसुमति बोधति, गगन चिरैयाँ उड़त दिखावत ॥


भावार्थ ;-- श्रीयशोदा जी अपने आँगन में खड़ी हुई श्याम को गोद में लेकर चन्द्रमा दिखला रही हैं - ` लाल! तुम रोते क्यों हो, मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ, देखो तो- भर आँख (भली प्रकार) देखने से यह (चंद्रमा) नेत्रों को शीतल करता है।' तब श्याम स्वयं चन्द्रमा की ओर देखने लगे और अपने हाथ उठा उठाकर दिखलाने (उसी की ओर संकेत करने ) लगे । श्रीहरि मन-ही-मन यह सोचने लगे कि `देखने में तो यह बड़ा सुन्दर है और मन को अच्छा भी लगता है; किंतु पता नहीं (स्वाद में) मीठा लगता है या खट्टा' माता से उसे मँगा देने को कहने लगे-`मुझे भूख लगी है, मैं चन्द्रमा को खाऊँगा, तू ला दे ! ला दे इसे! इस प्रकार इस प्रकार क्रोध करके झगड़ने (मचलने) लगे । यशोदा जी कहने लगीं-`मैंने यह क्या किया, जो इसे चन्द्र दिखाया । अब तो मेरा यह मोहन रो रहा है और बहुत ही दुःखी हो रहा है ।' सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा जी श्यामसुन्दर को समझा रही हैं, तथा आकाश में उड़ती चिड़ियाँ उन्हें बहलाने के लिये दिखला रही हैं ।