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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
}}
<poem>
'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।
'इतने मरे'<br>अब सम्पादक यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर<br>चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी छापी लिहाज़ा अपरिहार्य था ज़ाहिर करे वह भी जाती थी<br>अपनी राय। सबसे चाव एक हाथ दोशाले से<br>छिपाता जितना खू़न सोखता था<br>झबरीली गरदन के बाल उतना ही भारी होता था<br>दूसरा रक्त-भरी चिलमची में अख़बार। <br><br>सधी हुई छ्प्प-छ्प।
अब सम्पादक<br>चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी<br>लिहाज़ा अपरिहार्य था<br>ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।<br>एक हाथ दोशाले से छिपाता<br>झबरीली गरदन के बाल<br>दूसरा<br>रक्त-भरी चिलमची में<br>सधी हुई छ्प्प-छ्प।<br><br> जीवन <br> किन्तु बाहर था<br>मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली<br>चीख़ के बाहर था जीवन<br>वेगवान नदी सा हहराता<br>काटता तटबंध<br>तटबंध जो अगर चट्टान था<br>तब भी रेत ही था <br>
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !
</poem>
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