भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"परम्परा / वीरेन डंगवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
 
|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
 
}}
 
}}
 
+
<poem>
 
+
पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए  
 
+
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'  
 
+
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया  
 
+
और कहा - 'अब जा कर हुए तुम विवेकवान'  
पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए<br>
+
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी  
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'<br>
+
और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढो'  
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया<br>
+
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की  
और कहा - 'अब जा कर हुए तुम विवेकवान'<br>
+
नदी में उतार दी  
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी<br>
+
और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढो'<br>
+
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की<br>
+
नदी में उतार दी<br>
+
 
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।
 
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।
 +
</poem>

17:06, 11 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा - 'अब जा कर हुए तुम विवेकवान'
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी
और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढो'
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।