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"भूल-ग़लती / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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भूल-ग़लती
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आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
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तख्त पर दिल के, 
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चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
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आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
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खड़ी हैं सिर झुकाए
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::सब कतारें 
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:::बेजुबाँ बेबस सलाम में,
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अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे 
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::::दरबारे आम में। 
  
भूल-ग़लती<br>
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सामने
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर<br>
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बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
तख्त पर दिल के, <br>
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चेहरा
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,<br>
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कि जिस पर काँप
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,<br>
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दिल की भाप उठती है...
खड़ी हैं सिर झुकाए<br>
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पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
::सब कतारें <br>
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समूचे जिस्म पर लत्तर
:::बेजुबाँ बेबस सलाम में,<br>
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झलकते लाल लम्बे दाग
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे <br>
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बहते खून के  
::::दरबारे आम में।<br><br>
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वह क़ैद कर लाया गया ईमान...
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सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,  
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बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
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खामोश !!
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मनसबदार
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शाइर और सूफ़ी,  
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अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
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आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
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::::हैं खामोश !! 
  
सामने<br>
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नामंजूर  
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा<br>
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उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त  
चेहरा<br>
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नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार  
कि जिस पर काँप<br>
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कोई सोचता उस वक्त-  
दिल की भाप उठती है...<br>
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छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,  
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद<br>
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सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,  
समूचे जिस्म पर लत्तर<br>
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वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,  
झलकते लाल लम्बे दाग<br>
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शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!  
बहते खून के<br>
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(लेकिन, ना
वह क़ैद कर लाया गया ईमान...<br>
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जमाना साँप का काटा)  
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,<br>
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भूल (आलमगीर)  
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता<br>
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मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह  
खामोश !!<br>
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लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
::::सब खामोश<br>
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हाँ खूँखार आलीजाह,  
मनसबदार<br>
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वो आँखें सचाई की निकाले डालता,  
शाइर और सूफ़ी,<br>
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सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता  
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी<br>
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करता हमे वह घेर  
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार<br>
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बेबुनियाद, बेसिर-पैर..  
::::हैं खामोश !!<br><br>
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हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में  
नामंजूर<br>
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::::शाही मुकाम में !!
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त<br>
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नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार<br>
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कोई सोचता उस वक्त-<br>
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छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,<br>
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सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,<br>
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वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,<br>
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शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!<br>
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(लेकिन, ना <br>
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जमाना साँप का काटा)<br>
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भूल (आलमगीर)<br>
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मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह<br>
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लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार <br>
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हाँ खूँखार आलीजाह,<br>
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वो आँखें सचाई की निकाले डालता,<br>
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सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता<br>
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करता हमे वह घेर<br>
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बेबुनियाद, बेसिर-पैर..<br>
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हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में<br>
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::::शाही मुकाम में !!<br><br>
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इतने में हमीं में से <br>
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इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा<br>
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अजीब कराह सा कोई निकल भागा  
भरे दरबारे-आम में मैं भी<br>
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भरे दरबारे-आम में मैं भी  
सँभल जागा<br>
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सँभल जागा  
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार<br>
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कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार  
बख्तरबंद समझौते <br>
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बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,<br>
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सहमकर, रह गए,  
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,<br>
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दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,  
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,<br>
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दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,  
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा<br>
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दढ़ियल सिपहसालार संजीदा  
::::सहमकर रह गये !!<br><br>
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::::सहमकर रह गये !!
  
लेकिन, उधर उस ओर,<br>
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लेकिन, उधर उस ओर,  
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,<br>
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कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,  
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में<br>
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अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में  
कहीं पर खो गया,<br>
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कहीं पर खो गया,  
महसूस होता है कि यह बेनाम<br>
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महसूस होता है कि यह बेनाम  
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में<br>
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बेमालूम दर्रों के इलाक़े में  
( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)<br>
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(सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)  
मुहैया कर रहा लश्कर;<br>
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मुहैया कर रहा लश्कर;  
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा<br>
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हमारी हार का बदला चुकाने आयगा  
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,<br>
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संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,  
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर<br>
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हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर  
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!<br><br>
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प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
( कविता संग्रह, "चाँद का मुँह टेढ़ा है से" )
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<poem>

10:36, 26 अप्रैल 2012 का अवतरण

भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के
वह क़ैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!

नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त-
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमे वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
(सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!