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"ग्वालिनि जौ घर देखै आइ / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥<br><br>
 
सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥<br><br>
  
भावार्थ :--जो घरमें आकर देखा तो (घरकी यह दशा थी कि) सब मक्खन चुराकर , खापीकर श्यामसुन्दर स्वयं छिप गये थे । वह अपने मटकेके पास खड़ी हुई तो (देखती क्या है कि) मटका खाली पड़ा है । (सोचने लगी-) `मैं अभी-अभी तो गयी थी और इन्हीं पैरों (बिना कहीं रुके) लौट आयी हूँ, इतनेमें कौन चोरी कर ले गया ?' भवनके भीतर गयी तो वहाँ कृष्णचन्द्र मिले । सूरदासजी कहते हैं कि ग्वालिनी के आगे अपना नाम बताकर मेरे स्वामी श्यामसुन्दरने उसके पैर पकड़ लिये ।
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भावार्थ :--जो घर में आकर देखा तो (घर की यह दशा थी कि) सब मक्खन चुरा कर , खा-पी कर श्यामसुन्दर स्वयं छिप गये थे । वह अपने मटके के पास खड़ी हुई तो (देखती क्या है कि) मटका खाली पड़ा है । (सोचने  
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लगी-) `मैं अभी-अभी तो गयी थी और इन्हीं पैरों (बिना कहीं रुके) लौट आयी हूँ, इतने में कौन चोरी कर ले गया ?' भवन के भीतर गयी तो वहाँ कृष्णचन्द्र मिले । सूरदास जी कहते हैं कि ग्वालिनी के आगे अपना नाम बता कर मेरे स्वामी श्यामसुन्दर ने उसके पैर पकड़ लिये ।

10:21, 28 सितम्बर 2007 के समय का अवतरण



राग-सारंग


ग्वालिनि जौ घर देखै आइ ।
माखन खाइ चोराइ स्याम सब, आपुन रहे छपाइ ॥
ठाढ़ी भई मथनियाँ कैं ढिग, रीती परि कमोरी ।
अबहिं गई, आई इनि पाइनि, लै गयौ को करि चोरी ?
भीतर गई, तहाँ हरि पाए, स्याम रहे गहि पाइ ।
सूरदास प्रभु ग्वालिनि आगैं, अपनौं नाम सुनाइ ॥

भावार्थ :--जो घर में आकर देखा तो (घर की यह दशा थी कि) सब मक्खन चुरा कर , खा-पी कर श्यामसुन्दर स्वयं छिप गये थे । वह अपने मटके के पास खड़ी हुई तो (देखती क्या है कि) मटका खाली पड़ा है । (सोचने लगी-) `मैं अभी-अभी तो गयी थी और इन्हीं पैरों (बिना कहीं रुके) लौट आयी हूँ, इतने में कौन चोरी कर ले गया ?' भवन के भीतर गयी तो वहाँ कृष्णचन्द्र मिले । सूरदास जी कहते हैं कि ग्वालिनी के आगे अपना नाम बता कर मेरे स्वामी श्यामसुन्दर ने उसके पैर पकड़ लिये ।