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"बाँसुरी अष्टक / सुधा गुप्ता" के अवतरणों में अंतर

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'''बाँसुरी अष्टक'''
 
 
  
 
सुनो जी कान्हा!
 
सुनो जी कान्हा!

14:18, 22 मई 2012 का अवतरण


सुनो जी कान्हा!
सात छेद वाली मैं
खाली ही ख़ाली
तूने अधर धरी
सुरों की धार बही

बाँस की पोरी
निकम्मी, खोखल में
बेसुरी, कोरी
तूने फूँक जो भरी
बन गई ‘बाँसुरी’

कोई न गुन
दो टके का न तन
तूने छू दिया
कान्हा! निकली धुन
लो, मैं ‘नौ लखी’ हुई

छम से बजी
राधिका की पायल
सुन के धुन
दौड़ पड़ गोपियाँ
उफनी है कालिन्दी

तेरा ही जादू
दूध पीना भूला है
गैया का छौना
चित्र-से मोर, शुक
कैसा ये किया टोना

गोपी का नेह
अनूठा, निराला है
सास के ताने
पति-शिशु का मोह
छोड़ जाने वाला है

आज भी कान्हा
बजा रहे बाँसुरी
निधि-वन में
लोक-लाज छोड़ के
दौड़ी राधा बावरी