"धनि यह बृंदावन की रेनु / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥ | सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥ | ||
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सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्व प्रतिपादित किया है। | सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्व प्रतिपादित किया है। |
22:43, 2 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण
राग सारंग
धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥
सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्व प्रतिपादित किया है।