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'''[[अतुल अजनबी]]'''
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|रचनाकार=अतुल अजनबी
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== जन्म ==
  
अतुल अजनबी का जन्म 10 सितम्बर 1969 स्व. रमा कान्त श्रीवास्तव के यहाँ तमसा नदी के किनारे बसे शहर अकबरपुर (उतर प्रदेश ) में हुआ। अतुल साहब का बचपन अकबरपुर में ही गुज़रा और तेरह बरस की उम्र तक पहुँचते - पहुँचते उन्होंने रंगमंच पे किरदार को कपड़े की तरह पहनना शुरू कर दिया।
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'''[[अतुल अजनबी]]''' का जन्म 10 सितम्बर 1969 स्व. रमा कान्त श्रीवास्तव के यहाँ तमसा नदी के किनारे बसे शहर अकबरपुर (उतर प्रदेश ) में हुआ। अतुल साहब का बचपन अकबरपुर में ही गुज़रा और तेरह बरस की उम्र तक पहुँचते - पहुँचते उन्होंने रंगमंच पे किरदार को कपड़े की तरह पहनना शुरू कर दिया।
  
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== शिक्षा==
 
1982 में अतुल साहब अपने चाचा डॉ. उमाकांत श्रीवास्तव के साथ भिंड आ गये ये वो दौर था जब उनकी तमाम मौज़ -मस्ती उनसे छीन ली गई और उनके सामने जो आलम था वो था सिर्फ़ पढ़ाई और पढ़ाई। उसके बाद अतुल साहब तानसेन ,शाइर मुज़्तर खैराबादी, जाँ निसार अख्तर ,फैयाज़ ग्वालियरी और रानी लक्ष्मी बाई की शहादत स्थली पत्थरों के शहर ग्वालियर आ गये। जीवाजी यूनिवर्सिटी ,ग्वालियर से इन्होंने बी.एस.सी एवं एम् .ए (हिन्दी) में किया। इसके बाद इन्होंने लखनऊ से एल .एल .बी किया। इसी दरमियान अकबरपुर में अतुल साहब को इश्क़ नाम का मर्ज़ लग गया जब इश्क़ होने को होता है तो वो ये नहीं देखता की महबूब किस जाति का है किस बिरादरी का है,किस मज़हब का है। इश्क़ की राह आसान नहीं थी पर अतुल साहब इस राह पर भी डगमगाए नहीं उन्होंने 1991 में नौकरी लगने के बाद अपनी सच्ची मुहब्बत यानी अर्चना वर्मा से 1992 में निकाह कर लिया।  
 
1982 में अतुल साहब अपने चाचा डॉ. उमाकांत श्रीवास्तव के साथ भिंड आ गये ये वो दौर था जब उनकी तमाम मौज़ -मस्ती उनसे छीन ली गई और उनके सामने जो आलम था वो था सिर्फ़ पढ़ाई और पढ़ाई। उसके बाद अतुल साहब तानसेन ,शाइर मुज़्तर खैराबादी, जाँ निसार अख्तर ,फैयाज़ ग्वालियरी और रानी लक्ष्मी बाई की शहादत स्थली पत्थरों के शहर ग्वालियर आ गये। जीवाजी यूनिवर्सिटी ,ग्वालियर से इन्होंने बी.एस.सी एवं एम् .ए (हिन्दी) में किया। इसके बाद इन्होंने लखनऊ से एल .एल .बी किया। इसी दरमियान अकबरपुर में अतुल साहब को इश्क़ नाम का मर्ज़ लग गया जब इश्क़ होने को होता है तो वो ये नहीं देखता की महबूब किस जाति का है किस बिरादरी का है,किस मज़हब का है। इश्क़ की राह आसान नहीं थी पर अतुल साहब इस राह पर भी डगमगाए नहीं उन्होंने 1991 में नौकरी लगने के बाद अपनी सच्ची मुहब्बत यानी अर्चना वर्मा से 1992 में निकाह कर लिया।  
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== शाइरी से मुहब्बत ==
  
 
शाइरी से मुहब्बत अतुल अजनबी साहब को 1987 से हुई और शे'र कहने लगे। चाशनी जैसी शिरी ज़ुबान उर्दू उन्होंने मरहूम क़मर ग्वालियरी साहब से सीखी। अगर ग़ज़ल एक संगमरमर की ख़ूबसूरत मूरत है तो उस मूरत को गढ़ना अतुल अजनबी को हिन्दुस्तान के मुमताज़ शाइर प्रो. वसीम बरेलवी ने सिखाया , वसीम साहब की शागिर्दी में अतुल अजनबी ने अपने आप को ऐसा मुसव्विर (चित्रकार) बना लिया जिसने ग़ज़ल की तस्वीर बनाने में कभी रिवायत के रंग और तहज़ीब के ब्रश का साथ नहीं छोड़ा  
 
शाइरी से मुहब्बत अतुल अजनबी साहब को 1987 से हुई और शे'र कहने लगे। चाशनी जैसी शिरी ज़ुबान उर्दू उन्होंने मरहूम क़मर ग्वालियरी साहब से सीखी। अगर ग़ज़ल एक संगमरमर की ख़ूबसूरत मूरत है तो उस मूरत को गढ़ना अतुल अजनबी को हिन्दुस्तान के मुमताज़ शाइर प्रो. वसीम बरेलवी ने सिखाया , वसीम साहब की शागिर्दी में अतुल अजनबी ने अपने आप को ऐसा मुसव्विर (चित्रकार) बना लिया जिसने ग़ज़ल की तस्वीर बनाने में कभी रिवायत के रंग और तहज़ीब के ब्रश का साथ नहीं छोड़ा  
  
 
शाइरी के अपने मुख़्तसर से सफ़र में अतुल अजनबी मील के उस पत्थर तक पहुँच गये है जहाँ पहुँचने में मुद्दतें लग जाती हैं। नए ज़माने का मौसम कितना भी सख्त और गर्म क्यूँ न हुआ हो पर अतुल अजनबी ने जो रिवायत और तहज़ीब की दुशाला एकबार अपने उस्ताद से आशीर्वाद स्वरुप ओढ़ ली तो फिर उसे अपने बदन से कभी नहीं उतारा।  
 
शाइरी के अपने मुख़्तसर से सफ़र में अतुल अजनबी मील के उस पत्थर तक पहुँच गये है जहाँ पहुँचने में मुद्दतें लग जाती हैं। नए ज़माने का मौसम कितना भी सख्त और गर्म क्यूँ न हुआ हो पर अतुल अजनबी ने जो रिवायत और तहज़ीब की दुशाला एकबार अपने उस्ताद से आशीर्वाद स्वरुप ओढ़ ली तो फिर उसे अपने बदन से कभी नहीं उतारा।  
मशहूर शाइर निदा फ़ाज़ली साहब के हिसाब से अतुल अजनबी आज का शाइर है पर उसके इस आज में बीते हुए बहुत सारे कलों की भी हिस्सेदारी है और अतुल ने आज में कल की शिरकत को ग़ज़ल बनाया है। अतुल अजनबी के बारे में प्रो. वसीम बरेलवी अपनी ये राय रखते हैं कि अतुल ग़ज़ल के बेपनाह समन्दर में गोताज़नी को बेताब और अनमोल मोती ढूँढने की कोशिश में लगे रहते हैं। ग़ज़ल की बारीकियों को सिखाने का जहां भी कैम्प हो अतुल को ललक रहती है कि वो उसमें शामिल हो जाए।
 
  
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मशहूर शाइर [[निदा फ़ाज़ली]] साहब के हिसाब से अतुल अजनबी आज का शाइर है पर उसके इस आज में बीते हुए बहुत सारे कलों की भी हिस्सेदारी है और अतुल ने आज में कल की शिरकत को ग़ज़ल बनाया है।
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अतुल अजनबी के बारे में प्रो. [[वसीम बरेलवी]] अपनी ये राय रखते हैं कि अतुल ग़ज़ल के बेपनाह समन्दर में गोताज़नी को बेताब और अनमोल मोती ढूँढने की कोशिश में लगे रहते हैं। ग़ज़ल की बारीकियों को सिखाने का जहां भी कैम्प हो अतुल को ललक रहती है कि वो उसमें शामिल हो जाए।
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== ग़ज़ल संग्रह ==
  
 
अतुल अजनबी LIC विभाग में कम्यूटर प्रोग्रामर है और सरकारी दफ्तरों के रोज़-मर्रा के काम अपने इर्द-गिर्द दफ्तरों की फ़जां को भी उन्होंने शे'र की शक्ल दी है :-
 
अतुल अजनबी LIC विभाग में कम्यूटर प्रोग्रामर है और सरकारी दफ्तरों के रोज़-मर्रा के काम अपने इर्द-गिर्द दफ्तरों की फ़जां को भी उन्होंने शे'र की शक्ल दी है :-
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बाँटते -बाँटते थक जाओगे ये दफ़्तर सरकारी है
 
बाँटते -बाँटते थक जाओगे ये दफ़्तर सरकारी है
  
अतुल अजनबी का पहला ग़ज़ल संग्रह "शजर मिज़ाज" (नागरी) 2005 में शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से आया जिसने ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को एक नायाब तोहफा दिया। उनका दूसरा मज़्मुआ- ए- क़लाम उर्दू में "बरवक़्त " 2010 में मंज़रे -आम पे आया। शजर (पेड़) के मिज़ाज को अतुल ने बड़ी गहराई से समझा और दरख़्त को अपना मौज़ूं और प्रतीक बना के ख़ूबसूरत शे'र कहे
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अतुल अजनबी का पहला ग़ज़ल संग्रह "शजर मिज़ाज" (नागरी) 2005 में शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से आया जिसने ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को एक नायाब तोहफा दिया। उनका दूसरा मज़्मुआ- ए- क़लाम उर्दू में "बरवक़्त " 2010 में मंज़रे -आम पे आया।  
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19:46, 23 जुलाई 2012 का अवतरण

जन्म

अतुल अजनबी का जन्म 10 सितम्बर 1969 स्व. रमा कान्त श्रीवास्तव के यहाँ तमसा नदी के किनारे बसे शहर अकबरपुर (उतर प्रदेश ) में हुआ। अतुल साहब का बचपन अकबरपुर में ही गुज़रा और तेरह बरस की उम्र तक पहुँचते - पहुँचते उन्होंने रंगमंच पे किरदार को कपड़े की तरह पहनना शुरू कर दिया।

शिक्षा

1982 में अतुल साहब अपने चाचा डॉ. उमाकांत श्रीवास्तव के साथ भिंड आ गये ये वो दौर था जब उनकी तमाम मौज़ -मस्ती उनसे छीन ली गई और उनके सामने जो आलम था वो था सिर्फ़ पढ़ाई और पढ़ाई। उसके बाद अतुल साहब तानसेन ,शाइर मुज़्तर खैराबादी, जाँ निसार अख्तर ,फैयाज़ ग्वालियरी और रानी लक्ष्मी बाई की शहादत स्थली पत्थरों के शहर ग्वालियर आ गये। जीवाजी यूनिवर्सिटी ,ग्वालियर से इन्होंने बी.एस.सी एवं एम् .ए (हिन्दी) में किया। इसके बाद इन्होंने लखनऊ से एल .एल .बी किया। इसी दरमियान अकबरपुर में अतुल साहब को इश्क़ नाम का मर्ज़ लग गया जब इश्क़ होने को होता है तो वो ये नहीं देखता की महबूब किस जाति का है किस बिरादरी का है,किस मज़हब का है। इश्क़ की राह आसान नहीं थी पर अतुल साहब इस राह पर भी डगमगाए नहीं उन्होंने 1991 में नौकरी लगने के बाद अपनी सच्ची मुहब्बत यानी अर्चना वर्मा से 1992 में निकाह कर लिया।

शाइरी से मुहब्बत

शाइरी से मुहब्बत अतुल अजनबी साहब को 1987 से हुई और शे'र कहने लगे। चाशनी जैसी शिरी ज़ुबान उर्दू उन्होंने मरहूम क़मर ग्वालियरी साहब से सीखी। अगर ग़ज़ल एक संगमरमर की ख़ूबसूरत मूरत है तो उस मूरत को गढ़ना अतुल अजनबी को हिन्दुस्तान के मुमताज़ शाइर प्रो. वसीम बरेलवी ने सिखाया , वसीम साहब की शागिर्दी में अतुल अजनबी ने अपने आप को ऐसा मुसव्विर (चित्रकार) बना लिया जिसने ग़ज़ल की तस्वीर बनाने में कभी रिवायत के रंग और तहज़ीब के ब्रश का साथ नहीं छोड़ा

शाइरी के अपने मुख़्तसर से सफ़र में अतुल अजनबी मील के उस पत्थर तक पहुँच गये है जहाँ पहुँचने में मुद्दतें लग जाती हैं। नए ज़माने का मौसम कितना भी सख्त और गर्म क्यूँ न हुआ हो पर अतुल अजनबी ने जो रिवायत और तहज़ीब की दुशाला एकबार अपने उस्ताद से आशीर्वाद स्वरुप ओढ़ ली तो फिर उसे अपने बदन से कभी नहीं उतारा।

मशहूर शाइर निदा फ़ाज़ली साहब के हिसाब से अतुल अजनबी आज का शाइर है पर उसके इस आज में बीते हुए बहुत सारे कलों की भी हिस्सेदारी है और अतुल ने आज में कल की शिरकत को ग़ज़ल बनाया है।

अतुल अजनबी के बारे में प्रो. वसीम बरेलवी अपनी ये राय रखते हैं कि अतुल ग़ज़ल के बेपनाह समन्दर में गोताज़नी को बेताब और अनमोल मोती ढूँढने की कोशिश में लगे रहते हैं। ग़ज़ल की बारीकियों को सिखाने का जहां भी कैम्प हो अतुल को ललक रहती है कि वो उसमें शामिल हो जाए।

ग़ज़ल संग्रह

अतुल अजनबी LIC विभाग में कम्यूटर प्रोग्रामर है और सरकारी दफ्तरों के रोज़-मर्रा के काम अपने इर्द-गिर्द दफ्तरों की फ़जां को भी उन्होंने शे'र की शक्ल दी है :-

दीवारों से दरवाजों तक रिश्वत मांगने वाले हैं

बाँटते -बाँटते थक जाओगे ये दफ़्तर सरकारी है

अतुल अजनबी का पहला ग़ज़ल संग्रह "शजर मिज़ाज" (नागरी) 2005 में शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से आया जिसने ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को एक नायाब तोहफा दिया। उनका दूसरा मज़्मुआ- ए- क़लाम उर्दू में "बरवक़्त " 2010 में मंज़रे -आम पे आया। शजर (पेड़) के मिज़ाज को अतुल ने बड़ी गहराई से समझा और दरख़्त को अपना मौज़ूं और प्रतीक बना के ख़ूबसूरत शे'र कहे