"रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 6" के अवतरणों में अंतर
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+ | बेटा ! लो जग में नया सुयश, | ||
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+ | यदि इसे रोक तुम पाओगे, | ||
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+ | कर दूर द्वेष-विष को मन से, | ||
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+ | मेरा अन्तिम बलिदान रहे, | ||
+ | सुख से सारी सन्तान रहे।’’ | ||
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+ | ‘‘हे पुरूष सिंह !’’ कर्ण ने कहा, | ||
+ | ‘‘अब और पन्थ क्या शेष रहा ? | ||
+ | सकंटापन्न जीवन समान, | ||
+ | है बीच सिन्धु में महायान; | ||
+ | इस पार शान्ति, उस पार विजय | ||
+ | अब क्या हो भला नया निश्चय ? | ||
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+ | ‘‘जय मिले बिना विश्राम नहीं, | ||
+ | इस समय सन्धि का नाम नहीं, | ||
+ | आशिष दीजिये, विजय कर रण, | ||
+ | फिर देख सकूँ ये भव्य चरण; | ||
+ | जलयान सिन्धु से तार सकूँ; | ||
+ | सबको मैं पार उतार सकूँ। | ||
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+ | ‘‘कल तक था पथ शान्ति का सुगम, | ||
+ | पर, हुआ आज वह अति दुर्गम, | ||
+ | अब उसे देख ललचाना क्या ? | ||
+ | पीछे को पाँव हठाना क्या ? | ||
+ | जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम, | ||
+ | अरि-दल को गर्व दलेंगे हम। | ||
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+ | ‘‘हे महाभाग, कुछ दिन जीकर, | ||
+ | देखिये और यह महासमर, | ||
+ | मुझको भी प्रलय मचाना है, | ||
+ | कुछ खेल नया दिखलाना है; | ||
+ | इस दम तो मुख मोडि़ये नहीं; | ||
+ | मेरी हिम्मत तोडि़ये नहीं। | ||
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+ | करने दीजिये स्वव्रत पालन, | ||
+ | अपने महान् प्रतिभट से रण, | ||
+ | अर्जुन का शीश उड़ाना है, | ||
+ | कुरूपति का हृदय जुड़ाना है। | ||
+ | करने को पिता अमर मुझको, | ||
+ | है बुला रहा संगर मुझको।’’ | ||
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+ | गांगेय निराशा में भर कर, | ||
+ | बोले-‘‘तब हे नरवीर प्रवर ! | ||
+ | जो भला लगे, वह काम करो, | ||
+ | जाओ, रण में लड़ नाम करो। | ||
+ | भगवान्् शमित विष तूर्ण करें; | ||
+ | अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।’’ | ||
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+ | भीष्म का चरण-वन्दन करके, | ||
+ | ऊपर सूर्य को नमन करके, | ||
+ | देवता वज्र-धनुधारी सा, | ||
+ | केसरी अभय मगचारी-सा, | ||
+ | राधेय समर की ओर चला, | ||
+ | करता गर्जन घनघोर चला। | ||
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11:50, 27 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
‘‘पर हाय, वीरता का सम्बल,
रह जायेगा धनु ही केवल ?
या शान्ति हेतु शीतल, शुचि श्रम,
भी कभी करेंगे वीर परम ?
ज्वाला भी कभी बुझायेंगे ?
या लड़कर ही मर जायेंगे ?
‘‘चल सके सुयोधन पर यदि वश,
बेटा ! लो जग में नया सुयश,
लड़ने से बढ़ यह काम करो,
आज ही बन्द संग्राम करो।
यदि इसे रोक तुम पाओगे,
जग के त्राता कहलाओगे।
‘‘जा कहो वीर दुर्योधन से,
कर दूर द्वेष-विष को मन से,
वह मिल पाण्डवों से जाकर,
मरने दे मुझे शान्ति पाकर।
मेरा अन्तिम बलिदान रहे,
सुख से सारी सन्तान रहे।’’
‘‘हे पुरूष सिंह !’’ कर्ण ने कहा,
‘‘अब और पन्थ क्या शेष रहा ?
सकंटापन्न जीवन समान,
है बीच सिन्धु में महायान;
इस पार शान्ति, उस पार विजय
अब क्या हो भला नया निश्चय ?
‘‘जय मिले बिना विश्राम नहीं,
इस समय सन्धि का नाम नहीं,
आशिष दीजिये, विजय कर रण,
फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;
जलयान सिन्धु से तार सकूँ;
सबको मैं पार उतार सकूँ।
‘‘कल तक था पथ शान्ति का सुगम,
पर, हुआ आज वह अति दुर्गम,
अब उसे देख ललचाना क्या ?
पीछे को पाँव हठाना क्या ?
जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम,
अरि-दल को गर्व दलेंगे हम।
‘‘हे महाभाग, कुछ दिन जीकर,
देखिये और यह महासमर,
मुझको भी प्रलय मचाना है,
कुछ खेल नया दिखलाना है;
इस दम तो मुख मोडि़ये नहीं;
मेरी हिम्मत तोडि़ये नहीं।
करने दीजिये स्वव्रत पालन,
अपने महान् प्रतिभट से रण,
अर्जुन का शीश उड़ाना है,
कुरूपति का हृदय जुड़ाना है।
करने को पिता अमर मुझको,
है बुला रहा संगर मुझको।’’
गांगेय निराशा में भर कर,
बोले-‘‘तब हे नरवीर प्रवर !
जो भला लगे, वह काम करो,
जाओ, रण में लड़ नाम करो।
भगवान्् शमित विष तूर्ण करें;
अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।’’
भीष्म का चरण-वन्दन करके,
ऊपर सूर्य को नमन करके,
देवता वज्र-धनुधारी सा,
केसरी अभय मगचारी-सा,
राधेय समर की ओर चला,
करता गर्जन घनघोर चला।