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− | + | क्षण भर चाहती थी वह आराम | |
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− | + | उनके टंट-घंट में जुटी | |
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− | + | रात में सबके बाद खाने बैठी | |
+ | अब की रोटी के साथ थी सब्ज़ी भी | ||
+ | जिसे पति ने अपनी रुचि से ख़रीदा था | ||
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+ | बिस्तर पर गिरने से पहले | ||
+ | वह अकेले में थोड़ी देर रोई | ||
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+ | फिर पति की बाँहों में | ||
+ | सोचते-सोचते बेटियों के ब्याह के बारे में | ||
+ | ग़ायब हो गई सपनों की दुनिया में | ||
+ | और नींद में ही पूरी कर ली उसने | ||
+ | सभी तीर्थों की यात्रा । | ||
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13:14, 3 अगस्त 2012 का अवतरण
सप्ताह की कविता
शीर्षक : स्त्री की तीर्थयात्रा रचनाकार: विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
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सवेरे-सवेरे उसने बर्तन साफ़ किए घर-भर के जूठे बर्तन झाड़ू-पोंछे के बाद बेटियों को संवार कर स्कूल रवाना किया सबके लिए बनाई चाय जब वह छोटा बच्चा ज़ोर-ज़ोर रोने लगा वह बीच में उठी पूजा छोड़कर उसका सू-सू साफ़ किया दोपहर भोजन के आख़िरी दौर में आ गए एक मेहमान दाल में पानी मिला कर किया उसने अतिथि-सत्कार और बैठ गई चटनी के साथ बची हुई रोटी लेकर क्षण भर चाहती थी वह आराम कि आ गईं बेटियाँ स्कूल से मुरझाई हुईं उनके टंट-घंट में जुटी फिर जुटी संझा की रसोई में रात में सबके बाद खाने बैठी अब की रोटी के साथ थी सब्ज़ी भी जिसे पति ने अपनी रुचि से ख़रीदा था बिस्तर पर गिरने से पहले वह अकेले में थोड़ी देर रोई अपने स्वर्गीय बाबा की याद में फिर पति की बाँहों में सोचते-सोचते बेटियों के ब्याह के बारे में ग़ायब हो गई सपनों की दुनिया में और नींद में ही पूरी कर ली उसने सभी तीर्थों की यात्रा ।