भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अंतिम आलोक / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अज्ञेय
 
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=सुनहरे शैवाल / अज्ञेय; इत्यलम् / अज्ञेय
+
|संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGeet}}
 
{{KKCatGeet}}

10:42, 13 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

सन्ध्या की किरण-परी ने
उठ अरुण पंख दो खोले
कम्पित-कर गिरि-शिखरों के
उर-छिपे रहस्य टटोले ।

        देखी उस अरुण किरण ने
        कुल पर्वत-माला श्यामल—
        बस एक शृंग पर हिम का
        था कम्पित कंचन झलमल ।

प्राणों में हाय पुरानी
क्यों कसक जग उठी सहसा ?
वेदना-व्योम से मानो—
खोया-सा स्मृति-घन बरसा !

        तेरी उस अन्त-घड़ी में
        तेरी आँखों में, जीवन !
        ऐसा ही चमक उठा था
        तेरा अन्तिम आँसू-कन !

अक्टूबर, 1934