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"धुँआ (35) / हरबिन्दर सिंह गिल" के अवतरणों में अंतर

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न ही धर्म ग्रन्थों के उपदेशों से ज्यादा मूल्यवान है
 
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यदि समझ सकते हो गहराई
 
यदि समझ सकते हो गहराई

09:13, 8 फ़रवरी 2013 का अवतरण

क्या इस कविता की पंक्तियों से
धुएँ का भाव साफ होकर
समाज के सामने आ सकेगा ।

भाव समझ भी लिया यदि मानव ने
क्या उसे अर्थ दे सकेगा
या फिर उसे मंचो पर सुनाकर
मानवता की दुहाई देकर
चुपचाप उन्हीं गलियों में वापिस जाकर
इसी धुएँ में रहने का
आदि तो नहीं हो जाएगा ।

यदि होगा, क्योंकि यह भाव नया नहीं है
न ही धर्म ग्रन्थों के उपदेशों से ज्यादा मूल्यवान है
यदि समझ सकते हो गहराई
धार्मिक उपदेशों के दार्शनिकता की
न उठता प्रश्न सपने में भी
इस धुएँ के उद्गम का ।