"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
<div style="font-size:120%; color:#a00000"> | <div style="font-size:120%; color:#a00000"> | ||
− | + | लोकतंत्र का धोखा बना रहे | |
</div> | </div> | ||
<div> | <div> | ||
− | रचनाकार: [[ | + | रचनाकार: [[दिनकर कुमार]] |
</div> | </div> | ||
<div style="text-align:left;overflow:auto;height:450px;border:none;"><poem> | <div style="text-align:left;overflow:auto;height:450px;border:none;"><poem> | ||
− | + | विचारधाराओं के मुखौटे लगाकर | |
− | + | कारोबार करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ | |
− | + | असल में निजी कम्पनियाँ हैं | |
− | जो | + | जो हमें शेयर की तरह उछालती हैं |
− | + | बेचती हैं ख़रीदती हैं निपटाती हैं | |
− | + | ||
− | + | निजी कंपनियों के जैसे होते हैं मालिक-मालिकिन | |
− | + | वैसे ही इन पार्टियों के भी हैं मालिक-मालिकिन | |
− | + | जो विज्ञापनों के सहारे | |
− | जो | + | हमें डराती हैं कि अगर हमने प्रतिद्वंद्वी कम्पनी का |
− | + | दामन थाम लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे | |
− | + | ||
+ | ये कम्पनियाँ संकटों को प्रायोजित करती हैं | ||
+ | उसी तरह जैसे दंगों को प्रायोजित करती हैं | ||
+ | |||
+ | मुखौटे उतारने पर इन सभी कम्पनियों के चेहरे | ||
+ | एक जैसे लगते हैं | ||
+ | एक जैसी ही विचारधारा | ||
+ | एक जैसी ही लिप्सा | ||
+ | एक ही मकसद | ||
+ | |||
+ | कि लोकतंत्र का धोखा बना रहे | ||
+ | लेकिन हम बने रहें युगों-युगों तक ग़ुलाम। | ||
</poem></div> | </poem></div> |
13:05, 12 मार्च 2013 का अवतरण
लोकतंत्र का धोखा बना रहे
रचनाकार: दिनकर कुमार
विचारधाराओं के मुखौटे लगाकर
कारोबार करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ
असल में निजी कम्पनियाँ हैं
जो हमें शेयर की तरह उछालती हैं
बेचती हैं ख़रीदती हैं निपटाती हैं
निजी कंपनियों के जैसे होते हैं मालिक-मालिकिन
वैसे ही इन पार्टियों के भी हैं मालिक-मालिकिन
जो विज्ञापनों के सहारे
हमें डराती हैं कि अगर हमने प्रतिद्वंद्वी कम्पनी का
दामन थाम लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे
ये कम्पनियाँ संकटों को प्रायोजित करती हैं
उसी तरह जैसे दंगों को प्रायोजित करती हैं
मुखौटे उतारने पर इन सभी कम्पनियों के चेहरे
एक जैसे लगते हैं
एक जैसी ही विचारधारा
एक जैसी ही लिप्सा
एक ही मकसद
कि लोकतंत्र का धोखा बना रहे
लेकिन हम बने रहें युगों-युगों तक ग़ुलाम।