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वह जन मारे नहीं मरेगा
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लोकतंत्र का धोखा बना रहे
 
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रचनाकार: [[केदारनाथ अग्रवाल]]
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रचनाकार: [[दिनकर कुमार]]
 
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जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
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विचारधाराओं के मुखौटे लगाकर
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
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कारोबार करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
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असल में निजी कम्पनियाँ हैं
जो रवि के रथ का घोड़ा है
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जो हमें शेयर की तरह उछालती हैं
वह जन मारे नहीं मरेगा
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बेचती हैं ख़रीदती हैं निपटाती हैं
नहीं मरेगा
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जो जीवन की आग जला कर आग बना है
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निजी कंपनियों के जैसे होते हैं मालिक-मालिकिन
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
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वैसे ही इन पार्टियों के भी हैं मालिक-मालिकिन
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
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जो विज्ञापनों के सहारे
जो युग के रथ का घोड़ा है
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हमें डराती हैं कि अगर हमने प्रतिद्वंद्वी कम्पनी का
वह जन मारे नहीं मरेगा
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दामन थाम लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे
नहीं मरेगा
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ये कम्पनियाँ संकटों को प्रायोजित करती हैं
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उसी तरह जैसे दंगों को प्रायोजित करती हैं
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मुखौटे उतारने पर इन सभी कम्पनियों के चेहरे
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एक जैसे लगते हैं
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एक जैसी ही विचारधारा
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एक जैसी ही लिप्सा
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एक ही मकसद
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कि लोकतंत्र का धोखा बना रहे
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लेकिन हम बने रहें युगों-युगों तक ग़ुलाम।
 
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13:05, 12 मार्च 2013 का अवतरण

लोकतंत्र का धोखा बना रहे

रचनाकार: दिनकर कुमार

विचारधाराओं के मुखौटे लगाकर
कारोबार करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ
असल में निजी कम्पनियाँ हैं
जो हमें शेयर की तरह उछालती हैं
बेचती हैं ख़रीदती हैं निपटाती हैं

निजी कंपनियों के जैसे होते हैं मालिक-मालिकिन
वैसे ही इन पार्टियों के भी हैं मालिक-मालिकिन
जो विज्ञापनों के सहारे
हमें डराती हैं कि अगर हमने प्रतिद्वंद्वी कम्पनी का
दामन थाम लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे

ये कम्पनियाँ संकटों को प्रायोजित करती हैं
उसी तरह जैसे दंगों को प्रायोजित करती हैं

मुखौटे उतारने पर इन सभी कम्पनियों के चेहरे
एक जैसे लगते हैं
एक जैसी ही विचारधारा
एक जैसी ही लिप्सा
एक ही मकसद

कि लोकतंत्र का धोखा बना रहे
लेकिन हम बने रहें युगों-युगों तक ग़ुलाम।