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लोकतंत्र का धोखा बना रहे
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घृणा का गान
 
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रचनाकार: [[दिनकर कुमार]]
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विचारधाराओं के मुखौटे लगाकर
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !
कारोबार करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ
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असल में निजी कम्पनियाँ हैं
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जो हमें शेयर की तरह उछालती हैं
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बेचती हैं ख़रीदती हैं निपटाती हैं
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निजी कंपनियों के जैसे होते हैं मालिक-मालिकिन
+
तुम, जो भाई को अछूत कह, वस्त्र बचाकर भागे !
वैसे ही इन पार्टियों के भी हैं मालिक-मालिकिन
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तुम, जो बहनें छोड़ बिलखती बढ़े जा रहे आगे !
जो विज्ञापनों के सहारे
+
रुककर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान—
हमें डराती हैं कि अगर हमने प्रतिद्वंद्वी कम्पनी का
+
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !
दामन थाम लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे
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ये कम्पनियाँ संकटों को प्रायोजित करती हैं
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तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर, ऊँची दुकानों में
उसी तरह जैसे दंगों को प्रायोजित करती हैं
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उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में
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तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जलदान—
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !
  
मुखौटे उतारने पर इन सभी कम्पनियों के चेहरे
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तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,
एक जैसे लगते हैं
+
'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़कर केश !
एक जैसी ही विचारधारा
+
नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान—
एक जैसी ही लिप्सा
+
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !
एक ही मकसद
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कि लोकतंत्र का धोखा बना रहे
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तुम, जो पाकर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-
लेकिन हम बने रहें युगों-युगों तक ग़ुलाम।
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'निश्शक्तों की हत्या में कर सकते हो अभिमान,
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जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'—
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !
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तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल
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और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल !'
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तुम जिसकी लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान—
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सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !
 
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01:40, 24 मार्च 2013 का अवतरण

घृणा का गान

रचनाकार: अज्ञेय

सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो भाई को अछूत कह, वस्त्र बचाकर भागे !
तुम, जो बहनें छोड़ बिलखती बढ़े जा रहे आगे !
रुककर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर, ऊँची दुकानों में
उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में
तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जलदान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश,
'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़कर केश !
नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो पाकर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण-
'निश्शक्तों की हत्या में कर सकते हो अभिमान,
जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !

तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल
और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल !'
तुम जिसकी लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान !