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− | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान ! | + | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, |
+ | सुनो घृणा का गान ! | ||
− | तुम, जो भाई को अछूत कह, वस्त्र बचाकर भागे ! | + | तुम, जो भाई को अछूत कह, |
− | तुम, जो बहनें छोड़ बिलखती बढ़े जा रहे आगे ! | + | वस्त्र बचाकर भागे ! |
− | रुककर उत्तर दो, मेरा है अप्रतिहत आह्वान— | + | तुम, जो बहनें छोड़ बिलखती |
− | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान ! | + | बढ़े जा रहे आगे ! |
+ | रुककर उत्तर दो, मेरा | ||
+ | है अप्रतिहत आह्वान— | ||
+ | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, | ||
+ | सुनो घृणा का गान ! | ||
− | तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर, ऊँची दुकानों में | + | तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर, |
− | उन्हें कोसते हो जो भूखे मरते हैं खानों में | + | ऊँची दुकानों में |
− | तुम, जो रक्त चूस ठठरी को देते हो जलदान— | + | उन्हें कोसते हो जो भूखे |
− | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान ! | + | मरते हैं खानों में |
+ | तुम, जो रक्त चूस ठठरी को | ||
+ | देते हो जलदान— | ||
+ | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, | ||
+ | सुनो घृणा का गान ! | ||
− | तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश, | + | तुम, जो महलों में बैठे |
− | 'मरने दो बच्चे, ले आओ खींच पकड़कर केश ! | + | दे सकते हो आदेश, |
− | नहीं देख सकते निर्धन के घर दो मुट्ठी धान— | + | 'मरने दो बच्चे, ले आओ |
− | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान ! | + | खींच पकड़कर केश ! |
+ | नहीं देख सकते निर्धन के | ||
+ | घर दो मुट्ठी धान— | ||
+ | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, | ||
+ | सुनो घृणा का गान ! | ||
− | तुम, जो पाकर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण- | + | तुम, जो पाकर शक्ति कलम में |
− | ' | + | हर लेने की प्राण- |
− | जिनका मत है, 'नीच मरें, दृढ़ रहे हमारा स्थान'— | + | 'निश्शक्तों’ की हत्या में कर |
− | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान ! | + | सकते हो अभिमान, |
+ | जिनका मत है, 'नीच मरें, | ||
+ | दृढ़ रहे हमारा स्थान'— | ||
+ | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, | ||
+ | सुनो घृणा का गान ! | ||
− | तुम, जो मन्दिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल | + | तुम, जो मन्दिर में वेदी पर |
− | और इधर कहते जाते हो, 'जीवन क्या है? धूल !' | + | डाल रहे हो फूल |
− | तुम जिसकी लोलुपता ने ही धूल किया उद्यान— | + | और इधर कहते जाते हो, |
− | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान ! | + | 'जीवन क्या है? धूल !' |
+ | तुम जिसकी लोलुपता ने ही | ||
+ | धूल किया उद्यान— | ||
+ | सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, | ||
+ | सुनो घृणा का गान ! | ||
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01:43, 24 मार्च 2013 का अवतरण
घृणा का गान
रचनाकार: अज्ञेय
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ,
सुनो घृणा का गान !
तुम, जो भाई को अछूत कह,
वस्त्र बचाकर भागे !
तुम, जो बहनें छोड़ बिलखती
बढ़े जा रहे आगे !
रुककर उत्तर दो, मेरा
है अप्रतिहत आह्वान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ,
सुनो घृणा का गान !
तुम जो बड़े-बड़े गद्दों पर,
ऊँची दुकानों में
उन्हें कोसते हो जो भूखे
मरते हैं खानों में
तुम, जो रक्त चूस ठठरी को
देते हो जलदान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ,
सुनो घृणा का गान !
तुम, जो महलों में बैठे
दे सकते हो आदेश,
'मरने दो बच्चे, ले आओ
खींच पकड़कर केश !
नहीं देख सकते निर्धन के
घर दो मुट्ठी धान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ,
सुनो घृणा का गान !
तुम, जो पाकर शक्ति कलम में
हर लेने की प्राण-
'निश्शक्तों’ की हत्या में कर
सकते हो अभिमान,
जिनका मत है, 'नीच मरें,
दृढ़ रहे हमारा स्थान'—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ,
सुनो घृणा का गान !
तुम, जो मन्दिर में वेदी पर
डाल रहे हो फूल
और इधर कहते जाते हो,
'जीवन क्या है? धूल !'
तुम जिसकी लोलुपता ने ही
धूल किया उद्यान—
सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ,
सुनो घृणा का गान !