"हमारे वेद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर
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बड़े काम की औ बड़ी ही अनूठी। | बड़े काम की औ बड़ी ही अनूठी। | ||
उन्हीं से मिली सिध्दियों की अंगूठी।6। | उन्हीं से मिली सिध्दियों की अंगूठी।6। | ||
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+ | कहो सच किसी को कभी मत सताओ। | ||
+ | करो लोकहित प्रीति प्रभु से लगाओ। | ||
+ | भली चाल चल चित्त-ऊँचा बनाओ। | ||
+ | बुरा मत करो पाप भी मत कमाओ। | ||
+ | बहुत बातें हैं इस तरह की सुनाती। | ||
+ | कि जो सार हैं सब मतों का कहाती।7। | ||
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+ | उन्हें वेद ही ने जनम दे जिलाया। | ||
+ | उसी ने उन्हें सब मतों को चिन्हाया। | ||
+ | उसी ने उन्हें नर-उरों में लसाया। | ||
+ | उसी ने उन्हें प्यार-गजरा पिन्हाया। | ||
+ | समय-ओट में जब सभी मत रुके थे। | ||
+ | तभी मान का पान वे पा चुके थे।8। | ||
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+ | इसी वेद से जोत वह फूट पाई। | ||
+ | कि जो सब जगत के बहुत काम आई। | ||
+ | उसी से गईं बत्तिायाँ वे जलाई। | ||
+ | जिन्हों ने उँजेली उरों में उगाई। | ||
+ | उसी से दिये सब मतों के बले हैं। | ||
+ | कि जिन से अंधेरे घरों के टले हैं।9। | ||
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+ | चला कौन कब वेद से कर किनारा। | ||
+ | उसी से मिला खोजियों को सहारा। | ||
+ | किसी को बनाया किसी को सुधारा। | ||
+ | उसी ने किसी को दिया रंग न्यारा। | ||
+ | उसी से गयी आँख में जोत आई। | ||
+ | बहुत से उरों की हुई दूर काई।10। | ||
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+ | चमकती हुई धूप किरणें सुनहली। | ||
+ | उगा चाँद औ चाँदनी यह रुपहली। | ||
+ | हवा मंद बहती धारा ठीक सँभली। | ||
+ | सभी पौधा जिन से पली और बहली। | ||
+ | सकल लोक की जिस तरह हैं कहाती। | ||
+ | सभी की उसी भाँति हैं वेद थाती।11। | ||
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+ | सभी देश पर औ सभी जातियों पर। | ||
+ | सदा जल बहुत ही अनूठा बरस कर। | ||
+ | निराले अछूते भले भाव में भर। | ||
+ | बनाते उन्हें जिस तरह मेघ हैं तर। | ||
+ | उसी भाँति ए वेद प्यारों भरे हैं। | ||
+ | सकल-लोकहित के लिए अवतरे हैं।12। | ||
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+ | बड़े काम की बात वे हैं बताते। | ||
+ | बहुत ही भली सीख वे हैं सिखाते। | ||
+ | सभी जाति से प्यार वे हैं जताते। | ||
+ | सभी देश से नेह वे हैं निभाते। | ||
+ | कहीं पर मचल वह कभी है न अड़ती। | ||
+ | भली आँख उनकी सभी पर है पड़ती।13। | ||
+ | |||
+ | सचाई फरेरा उन्हीं का उड़ाया। | ||
+ | नहीं किस जगह पर फहरता दिखाया। | ||
+ | बिगुल नेकियों का उन्हीं का बजाया। | ||
+ | नहीं गूँजता किस दिशा में सुनाया। | ||
+ | कली लोक-हित की उन्हीं की खिलाई। | ||
+ | सुवासित न कर कौन सा देश आई।14। | ||
+ | |||
+ | किसी पर कभी वे नहीं टूट पड़ते। | ||
+ | बखेड़ा बढ़ा कर नहीं वे झगड़ते। | ||
+ | नहीं वे उलझते नहीं वे अकड़ते। | ||
+ | कभी मुँह बनाकर नहीं वे बिगड़ते। | ||
+ | मुँदी आँख हैं प्यार से खोल जाते। | ||
+ | सदा निज सहज भाव वे हैं दिखाते।15। | ||
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+ | दहकती हुई आग सूरज चमकता। | ||
+ | सुबह का अनोखा समय चाँद यकता। | ||
+ | हवा सनसनाती व बादल दलकता। | ||
+ | अनूठे सितारों भरा नभ दमकता। | ||
+ | उमड़ती सलिल धार औ धूप उजली। | ||
+ | खिली चाँदनी का समा कौंधा बिजली।16। | ||
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+ | सभी को सदा ही चकित हैं बनाती। | ||
+ | सहज ज्ञान की जोतियाँ हैं जगाती। | ||
+ | इन्हीं में बड़े ढंग से रंग लाती। | ||
+ | बड़ी ही अछूती कला है दिखाती। | ||
+ | इन्हीं के निराले विभव के सहारे। | ||
+ | किसी एक विभु के खुले रंग न्यारे।17। | ||
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+ | इसी से इन्हीं के सुयश को सुनाते। | ||
+ | इन्हीं के बड़ाई-भरे-गीत गाते। | ||
+ | इन्हीं के सराहे गुणों को गिनाते। | ||
+ | हमें वेद हैं भेद उसका बताते। | ||
+ | सभी में बसे औ लसे जो कि ऐसे। | ||
+ | दिये में दमक फूल में बास जैसे।18। | ||
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+ | अगर आँख खुल जाय उर की किसी के। | ||
+ | अगर हों लगे भाल पर भक्ति टीके। | ||
+ | भरम सब अगर दूर हो जायँ जीके। | ||
+ | जिसे भाव मिल जायँ योगी-यती के। | ||
+ | भले ही उसे सब जगह प्रभु दिखावे। | ||
+ | मगर दूसरा किस तरह सिध्दि पावे।19। | ||
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+ | उसे खोजना ही पड़ेगा सहारा। | ||
+ | कि जिस से खुले नाथ का रंग न्यारा। | ||
+ | किया इसलिए ही न उनसे किनारा। | ||
+ | जिन्हें वेद ने ज्ञान-साधन विचारा। | ||
+ | उन्होंने बहुत आँख ऊँची उठाई। | ||
+ | मगर सब कड़ी भी समझ के मिलाई।20। | ||
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+ | धरम के जथे जो धरम के जथों पर। | ||
+ | करें वार निज करनियों को बिसरकर। | ||
+ | कसर से भरे हों रखें हित न जौ भर। | ||
+ | कलह आग में डालते ही रहें खर। | ||
+ | जगत के हितों का लहू यों बहावें। | ||
+ | बिगड़ धूल में सब भलाई मिलावें।21। | ||
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+ | उन्हें फिर धरम के जथे कह जताना। | ||
+ | उमड़ते धुएँ को घटा है बनाना। | ||
+ | यही सोच है वेद ने यह बखाना। | ||
+ | बुरा सोचना है धरम का न बाना। | ||
+ | धरम पर धरम हैं न चोटें चलाते। | ||
+ | मिले, कींच में भी कमल हैं खिलाते।22। | ||
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+ | बने पंथ मत जो धरम के सहारे। | ||
+ | कहीं हों कभी हो सकेंगे न न्यारे। | ||
+ | चमकते मिले जो कि गंगा किनारे। | ||
+ | खिले नील पर भी वही ज्ञान तारे। | ||
+ | दमकते वही टाइवर पर दिखाये। | ||
+ | मिसिसिपी किनारे वही जगमगाये।23। | ||
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+ | सदा इसलिए वेद हैं यह बताते। | ||
+ | धरम हैं धरम को न धक्के लगाते। | ||
+ | कभी वे नहीं टूटते हैं दिखाते। | ||
+ | जिन्हें हैं सहज नेह-नाते मिलाते। | ||
+ | नये ढोंग रचकर जगत-जाल में पड़। | ||
+ | धरम वे न हैं जो धरम की खभें जड़।24। | ||
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+ | सभी एक ही ढंग के हैं न होते। | ||
+ | सिरों में न हैं एक से ज्ञान-सोते। | ||
+ | उरों में सभी हैं न बर बीज बोते। | ||
+ | बहुत से मिले बैठ पानी बिलोते। | ||
+ | अगर एक थिर तो अथिर दूसरा है। | ||
+ | जगत भिन्न रुचि के नरों से भरा है।25। | ||
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+ | इसी से बहुत पंथ मत हैं दिखाते। | ||
+ | विचारादि भी अनगिनत हैं दिखाते। | ||
+ | विविध रीति में लोग रत हैं दिखाते। | ||
+ | बहुत भाँति के नेम व्रत हैं दिखाते। | ||
+ | मगर छाप सब पर धरम की लगी है। | ||
+ | किसी एक प्रभु-जोत सब में जगी है।26। | ||
+ | |||
+ | नदी सब भले ही रखें ढंग न्यारा। | ||
+ | मगर है सबों में रमी नीर-धारा। | ||
+ | जगत के सकल पंथ मत का सितारा। | ||
+ | चमक है रहा पा धारम का सहारा। | ||
+ | इसे पेड़ उनको बताएँगे थाले। | ||
+ | धरम दूध है पंथ मत हैं पियाले।27। | ||
+ | |||
+ | सचाई भरी बात यह बूझ वाली। | ||
+ | ढली प्रेम में रंगतों में निराली। | ||
+ | गयी वेद की गोद में है सँभाली। | ||
+ | उसी ने उसे दी भली नीति ताली। | ||
+ | बहुत देश जिससे कि फल फूल पाया। | ||
+ | धरम मर्म वह वेद ही ने बताया।28। |
01:03, 22 मई 2013 के समय का अवतरण
अभी नर जनम की बजी भी बधाई।
रही आँख सुधा बुधा अभी खोल पाई।
समझ बूझ थी जिन दिनों हाथ आई।
रही जब उपज की झलक ही दिखाई।
कहीं की अंधेरी न थी जब कि टूटी।
न थी ज्ञान सूरज किरण जब कि फूटी।1।
तभी एक न्यारी कला रंग लाई।
हमारे बड़ों के उरों में समाई।
दिखा पंथ पारस बनी काम आई।
फबी और फूली फली जगमगाई।
उसी से हुआ सब जगत में उँजाला।
गया मूल सारे मतों का निकाला।2।
हमारे बड़े ए बड़ी सूझ वाले।
हुए हैं सभी बात ही में निराले।
उन्होंने सभी ढंग सुन्दर निकाले।
जगत में बिछे ज्ञान के बीज डाले।
उन्हीं का अछूता वचन लोक न्यारा।
गया वेद के नाम से है पुकारा।3।
विचारों भरे वेद ए हैं हमारे।
सराहे सभी भाव के हैं सहारे।
बड़े दिव्य हैं, हैं बड़े पूत, न्यारे।
मनो स्वर्ग से वे गये हैं उतारे।
उन्हीं से बही सब जगह ज्ञान-धारा।
उन्हीं से धरा पर धरम को पसारा।4।
उन्हीं ने भली नीति की नींव डाली।
खुली राह भलमंसियों की निकाली।
उन्हीं ने नई पौधा नर की सँभाली।
उन्हीं ने बनाया उसे बूझ वाली।
उन्हीं ने उसे पाठ ऐसा पढ़ाया।
कि है आज जिससे जगत जगमगाया।5।
उन्हीं ने जगत-सभ्यता-जड़ जमाई।
उन्हीं ने भली चाल सब को सिखाई।
उन्हीं ने जुगुत यह अछूती बनाई।
कि आई समझ में भलाई बुराई।
बड़े काम की औ बड़ी ही अनूठी।
उन्हीं से मिली सिध्दियों की अंगूठी।6।
कहो सच किसी को कभी मत सताओ।
करो लोकहित प्रीति प्रभु से लगाओ।
भली चाल चल चित्त-ऊँचा बनाओ।
बुरा मत करो पाप भी मत कमाओ।
बहुत बातें हैं इस तरह की सुनाती।
कि जो सार हैं सब मतों का कहाती।7।
उन्हें वेद ही ने जनम दे जिलाया।
उसी ने उन्हें सब मतों को चिन्हाया।
उसी ने उन्हें नर-उरों में लसाया।
उसी ने उन्हें प्यार-गजरा पिन्हाया।
समय-ओट में जब सभी मत रुके थे।
तभी मान का पान वे पा चुके थे।8।
इसी वेद से जोत वह फूट पाई।
कि जो सब जगत के बहुत काम आई।
उसी से गईं बत्तिायाँ वे जलाई।
जिन्हों ने उँजेली उरों में उगाई।
उसी से दिये सब मतों के बले हैं।
कि जिन से अंधेरे घरों के टले हैं।9।
चला कौन कब वेद से कर किनारा।
उसी से मिला खोजियों को सहारा।
किसी को बनाया किसी को सुधारा।
उसी ने किसी को दिया रंग न्यारा।
उसी से गयी आँख में जोत आई।
बहुत से उरों की हुई दूर काई।10।
चमकती हुई धूप किरणें सुनहली।
उगा चाँद औ चाँदनी यह रुपहली।
हवा मंद बहती धारा ठीक सँभली।
सभी पौधा जिन से पली और बहली।
सकल लोक की जिस तरह हैं कहाती।
सभी की उसी भाँति हैं वेद थाती।11।
सभी देश पर औ सभी जातियों पर।
सदा जल बहुत ही अनूठा बरस कर।
निराले अछूते भले भाव में भर।
बनाते उन्हें जिस तरह मेघ हैं तर।
उसी भाँति ए वेद प्यारों भरे हैं।
सकल-लोकहित के लिए अवतरे हैं।12।
बड़े काम की बात वे हैं बताते।
बहुत ही भली सीख वे हैं सिखाते।
सभी जाति से प्यार वे हैं जताते।
सभी देश से नेह वे हैं निभाते।
कहीं पर मचल वह कभी है न अड़ती।
भली आँख उनकी सभी पर है पड़ती।13।
सचाई फरेरा उन्हीं का उड़ाया।
नहीं किस जगह पर फहरता दिखाया।
बिगुल नेकियों का उन्हीं का बजाया।
नहीं गूँजता किस दिशा में सुनाया।
कली लोक-हित की उन्हीं की खिलाई।
सुवासित न कर कौन सा देश आई।14।
किसी पर कभी वे नहीं टूट पड़ते।
बखेड़ा बढ़ा कर नहीं वे झगड़ते।
नहीं वे उलझते नहीं वे अकड़ते।
कभी मुँह बनाकर नहीं वे बिगड़ते।
मुँदी आँख हैं प्यार से खोल जाते।
सदा निज सहज भाव वे हैं दिखाते।15।
दहकती हुई आग सूरज चमकता।
सुबह का अनोखा समय चाँद यकता।
हवा सनसनाती व बादल दलकता।
अनूठे सितारों भरा नभ दमकता।
उमड़ती सलिल धार औ धूप उजली।
खिली चाँदनी का समा कौंधा बिजली।16।
सभी को सदा ही चकित हैं बनाती।
सहज ज्ञान की जोतियाँ हैं जगाती।
इन्हीं में बड़े ढंग से रंग लाती।
बड़ी ही अछूती कला है दिखाती।
इन्हीं के निराले विभव के सहारे।
किसी एक विभु के खुले रंग न्यारे।17।
इसी से इन्हीं के सुयश को सुनाते।
इन्हीं के बड़ाई-भरे-गीत गाते।
इन्हीं के सराहे गुणों को गिनाते।
हमें वेद हैं भेद उसका बताते।
सभी में बसे औ लसे जो कि ऐसे।
दिये में दमक फूल में बास जैसे।18।
अगर आँख खुल जाय उर की किसी के।
अगर हों लगे भाल पर भक्ति टीके।
भरम सब अगर दूर हो जायँ जीके।
जिसे भाव मिल जायँ योगी-यती के।
भले ही उसे सब जगह प्रभु दिखावे।
मगर दूसरा किस तरह सिध्दि पावे।19।
उसे खोजना ही पड़ेगा सहारा।
कि जिस से खुले नाथ का रंग न्यारा।
किया इसलिए ही न उनसे किनारा।
जिन्हें वेद ने ज्ञान-साधन विचारा।
उन्होंने बहुत आँख ऊँची उठाई।
मगर सब कड़ी भी समझ के मिलाई।20।
धरम के जथे जो धरम के जथों पर।
करें वार निज करनियों को बिसरकर।
कसर से भरे हों रखें हित न जौ भर।
कलह आग में डालते ही रहें खर।
जगत के हितों का लहू यों बहावें।
बिगड़ धूल में सब भलाई मिलावें।21।
उन्हें फिर धरम के जथे कह जताना।
उमड़ते धुएँ को घटा है बनाना।
यही सोच है वेद ने यह बखाना।
बुरा सोचना है धरम का न बाना।
धरम पर धरम हैं न चोटें चलाते।
मिले, कींच में भी कमल हैं खिलाते।22।
बने पंथ मत जो धरम के सहारे।
कहीं हों कभी हो सकेंगे न न्यारे।
चमकते मिले जो कि गंगा किनारे।
खिले नील पर भी वही ज्ञान तारे।
दमकते वही टाइवर पर दिखाये।
मिसिसिपी किनारे वही जगमगाये।23।
सदा इसलिए वेद हैं यह बताते।
धरम हैं धरम को न धक्के लगाते।
कभी वे नहीं टूटते हैं दिखाते।
जिन्हें हैं सहज नेह-नाते मिलाते।
नये ढोंग रचकर जगत-जाल में पड़।
धरम वे न हैं जो धरम की खभें जड़।24।
सभी एक ही ढंग के हैं न होते।
सिरों में न हैं एक से ज्ञान-सोते।
उरों में सभी हैं न बर बीज बोते।
बहुत से मिले बैठ पानी बिलोते।
अगर एक थिर तो अथिर दूसरा है।
जगत भिन्न रुचि के नरों से भरा है।25।
इसी से बहुत पंथ मत हैं दिखाते।
विचारादि भी अनगिनत हैं दिखाते।
विविध रीति में लोग रत हैं दिखाते।
बहुत भाँति के नेम व्रत हैं दिखाते।
मगर छाप सब पर धरम की लगी है।
किसी एक प्रभु-जोत सब में जगी है।26।
नदी सब भले ही रखें ढंग न्यारा।
मगर है सबों में रमी नीर-धारा।
जगत के सकल पंथ मत का सितारा।
चमक है रहा पा धारम का सहारा।
इसे पेड़ उनको बताएँगे थाले।
धरम दूध है पंथ मत हैं पियाले।27।
सचाई भरी बात यह बूझ वाली।
ढली प्रेम में रंगतों में निराली।
गयी वेद की गोद में है सँभाली।
उसी ने उसे दी भली नीति ताली।
बहुत देश जिससे कि फल फूल पाया।
धरम मर्म वह वेद ही ने बताया।28।