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मुखपृष्ठ: झरना / जयशंकर प्रसाद
कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा,
वृक्ष-पत्र की मधु छाया में।
लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं,
अमृत सदृश नश्वर काया में।
अखिल विश्व के कोलाहल से,
दूर सुदूर निभृत निर्जन में।
गोधूली के मलिनांचल में,
कौन जंगली बैठा बन में।
शिथिल पड़ी प्रत्यंचा किसकीस
धनुष भग्न सब छिन्न जाल हैं।
वंशी नीरव पड़ी धूल में,
वीणा का भी बुरा हाल हैं।
किसके तममय अन्तर में,
झिल्ली की इनकार हो रही।
स्मृति सन्नाटे से भर जाती,
चपला ले विश्राम सो रही।
किसके अन्तःकरण अजिर में,
अखिल व्योम का लेकर मोती।
आँसू का बादल बन जाता;
फिर तुषार की वर्षा होती ।
विषयशून्य किसकी चितवन हैं,
ठहरी पलक अलक में आलस!
किसका यह सूखा सुहाग हैं,
छिना हुआ किसका सारा रस।
निर्झर कौन बहुत बल खाकर,
बिलखाला ठुकराता फिरता।
खोज रहा हैं स्थान धरा में,
अपने ही चरणों में गिरता।
किसी हृदय का यह विषाद हैं,
छेड़ो मत यह सुख का कण हैं।
उत्तेजित कर मत दौड़ाओ,
करुणा का विश्रान्त चरण हैं ॥