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"शे’र-ओ-सुखन / कलीम आजिज़" के अवतरणों में अंतर

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सुलगना और शै है जल के मर जाने से क्या होगा
 
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जो हमसे हो रहा है काम परवाने से क्या होगा ।
 
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बहुत दुश्वार समझाना है ग़म का समझ लेने में दुश्वारी नहीं है ।
 
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वो आएं क़त्ल को जिस रोज़ चाहें यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है ।
 
वो आएं क़त्ल को जिस रोज़ चाहें यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है ।
  
 
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मरकर भी दिखा देँगे तेरे चाहनेवाले
 
मरकर भी दिखा देँगे तेरे चाहनेवाले
 
मरना कोई जीने से बडा काम नही है ।
 
मरना कोई जीने से बडा काम नही है ।
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मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे
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तहज़ीब सलीक़े की इन्सान क़रीने के ।
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ये पुकार सारे चमन में थी, वो सेहर-हुई, वो सेहर हुई
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मेरे आशियाँ से धुआँ उठा तो मुझे भी इसकी ख़बर हुई ।
 
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12:56, 8 जुलाई 2013 का अवतरण

1.
वह शेर था जिसे कभी लाल किले के मुशायरे में आजिज़ साहब के मुँह से सुनकर इन्दिरा गांधी बिदक गई थीं !

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो,
क्या दोस्त हो दुश्मन को भी तुम मात करो हो ।
दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग़,
तुम क़त्ल करो हो, के करामात करो हो ।

2.
सुलगना और शै है जल के मर जाने से क्या होगा
जो हमसे हो रहा है काम परवाने से क्या होगा ।

3.
बहुत दुश्वार समझाना है ग़म का समझ लेने में दुश्वारी नहीं है ।
वो आएं क़त्ल को जिस रोज़ चाहें यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है ।

4.
मरकर भी दिखा देँगे तेरे चाहनेवाले
मरना कोई जीने से बडा काम नही है ।

5.
मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे
तहज़ीब सलीक़े की इन्सान क़रीने के ।

6.
ये पुकार सारे चमन में थी, वो सेहर-हुई, वो सेहर हुई
मेरे आशियाँ से धुआँ उठा तो मुझे भी इसकी ख़बर हुई ।