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"मरूं तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊं / अहमद नदीम क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

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कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊं|
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तख़्लीक़-ए-फ़न

02:05, 25 अक्टूबर 2007 का अवतरण

मरूं तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊं| नदीम! काश यही एक काम कर जाऊं|

ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास, जो इज़ां हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊं|

मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है, तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊं|

तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर कहां कहां तुझे ढूंढूं किधर किधर जाऊं|

मैं जि़न्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो, जो तू मिला है तो अब सोचता हूं मर जाऊं|

ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूं न हुआ, तुझे क़रीब जो पाऊं तो ख़ुद से डर जाऊं|

किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ, किसी कली पे न भूले से पांव धर जाऊं|

ये जी में आती है, तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में, कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊं|

तख़्लीक़-ए-फ़न