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"परिमल / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
 
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+
}}
  
'''प्रेयसी'''<br>
+
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 +
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|रचनाकार=[[सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]]
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}}
  
घेर अंग-अंग को<br>
+
*[[प्रेयसी / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]]
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, <br>
+
*[[मित्र के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"]]
ज्योतिर्मीयिलता-सी हुई मैं तत्काल<br>
+
घेर निज तरु-तन।<br><br>
+
 
+
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, <br>
+
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।<br>
+
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-<br>
+
चूर्ण हो विच्छुरित<br>
+
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही<br>
+
बहु रंग-भाव भर<br>
+
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, <br>
+
किरण-सम्पात से।<br><br>
+
 
+
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों<br>
+
विचरते मञ्जु-मुख <br>
+
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज<br>
+
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।<br>
+
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-<br>
+
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार<br>
+
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में<br>
+
उठी हुई उर्वशी-सी, <br>
+
कम्पित प्रतनु-भार, <br>
+
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि<br>
+
निश्चल अरूप में।<br><br>
+
 
+
हुआ रूप-दर्शन<br>
+
जब कृतविद्य तुम मिले<br>
+
विद्या को दृगों से, <br>
+
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-<br>
+
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-<br>
+
श्रृंगार<br>
+
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।<br><br>
+
 
+
याद है, उषःकाल,-<br>
+
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में, <br>
+
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की<br>
+
मञ्जरित लता पर,<br>
+
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर<br>
+
प्रणय-मिलन-गान,<br>
+
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु<br>
+
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;<br><br>
+
 
+
करती विहार<br>
+
उपवन में मैं, छिन्न-हार<br>
+
मुक्ता-सी निःसंग,<br>
+
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;<br>
+
मिले तुम एकाएक;<br>
+
देख मैं रुक गयी:-<br>
+
चल पद हुए अचल, <br>
+
आप ही अपल दृष्टि, <br>
+
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।<br><br>
+
 
+
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को, <br>
+
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !<br>
+
दूर थी, <br>
+
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।<br>
+
अपनी ही दृष्टि में;<br>
+
जो था समीप विश्व, <br>
+
दूर दूरतर दिखा।<br><br>
+
 
+
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी<br>
+
ज्योति-छबि मेरी, <br>
+
नीलिमा ज्यों शून्य से;<br>
+
बँधकर मैं रह गयी;<br>
+
डूब गये प्राणों में <br>
+
पल्लव-लता-भार<br>
+
वन-पुष्प-तरु-हार<br>
+
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-<br>
+
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-<br>
+
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा, <br>
+
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।<br>
+
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !<br><br>
+
 
+
बँधी हुई तुमसे ही<br>
+
देखने लगी मैं फिर-<br>
+
फिर प्रथम पृथ्वी को;<br>
+
भाव बदला हुआ-<br>
+
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;<br>
+
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !<br><br>
+
 
+
देखती हुई सहज<br>
+
हो गयी मैं जड़ीभूत, <br>
+
जगा देहज्ञान, <br>
+
फिर याद गेह की हुई;<br>
+
लज्जित<br>
+
उठे चरण दूसरी ओर को<br>
+
विमुख अपने से हुई !<br><br>
+
 
+
चली चुपचाप, <br>
+
मूक सन्ताप हृदय में, <br>
+
पृथुल प्रणय-भार।<br>
+
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे<br>
+
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से<br>
+
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,<br>
+
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय, <br>
+
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।<br>
+
कैसी निरलस दृष्टि !<br><br>
+
 
+
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में<br>
+
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–<br>
+
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता<br>
+
नभ की निरुपमा को, <br>
+
पलकों पर रख नयन<br>
+
करता प्रणयन, शब्द-<br>
+
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।<br>
+
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर <br>
+
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;<br>
+
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-<br>
+
उनकी ही मैं हुई !<br>
+
 
+
समझ नहीं सकी, हाय, <br>
+
बँधा सत्य अञ्चल से<br>
+
खुलकर कहाँ गिरा।<br>
+
बीता कुछ काल, <br>
+
देह-ज्वाला बढ़ने लगी, <br>
+
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु, <br>
+
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर<br>
+
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।<br>
+
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली, <br>
+
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-<br>
+
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।<br>
+
तब तुम लघुपद-विहार<br>
+
अनिल ज्यों बार-बार<br><br>
+
 
+
वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे<br>
+
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।<br>
+
अपने उस गीत पर<br>
+
सुखद मनोहर उस तान का माया में, <br>
+
लहरों में हृदय की<br>
+
भूल-सी मैं गयी<br>
+
संसृति के दुःख-घात, <br>
+
श्लथ-गात, तुममें ज्यों<br>
+
रही मैं बद्ध हो।<br><br>
+
 
+
किन्तु हाय, <br>
+
रूढ़ि, धर्म के विचार, <br>
+
कुल, मान, शील, ज्ञान, <br>
+
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे, <br>
+
घेर लेते बार-बार, <br>
+
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र, <br>
+
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।<br>
+
दोनों हम भिन्न-वर्ण,<br>
+
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,<br>
+
भिन्न-धर्मभाव, पर<br>
+
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।<br><br>
+
 
+
किन्तु दिन रात का, <br>
+
जल और पृथ्वी का<br>
+
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है<br>
+
समझे यह नहीं लोग <br>
+
व्यर्थ अभिमान के !<br>
+
अन्धकार था हृदय <br>
+
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।<br>
+
गृह-जन थे कर्म पर।<br>
+
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम, <br>
+
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग<br>
+
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।<br><br>
+
 
+
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर, <br>
+
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर<br>
+
जीवन की वीणा में, <br>
+
सुनती थी मैं जिसे।<br>
+
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।<br>
+
चल दी मैं मुक्त, साथ।<br>
+
एक बार की ऋणी <br>
+
उद्धार के लिए, <br>
+
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।<br><br>
+
 
+
पूर्ण मैं कर चुकी।<br>
+
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।<br>
+
रूप के द्वार पर<br>
+
मोह की माधुरी<br>
+
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय, <br>
+
जागती मैं रही, <br>
+
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।<br>
+
 
+
'''मित्र के प्रति'''<br>
+
 
+
(1)
+
 
+
कहते हो, ‘‘नीरस यह<br>
+
बन्द करो गान-<br>
+
कहाँ छन्द, कहाँ भाव,<br>
+
कहाँ यहाँ प्राण ?<br>
+
था सर प्राचीन सरस, <br>
+
सारस-हँसों से हँस;<br>
+
वारिज-वारिज में बस<br>
+
रहा विवश प्यार;<br>
+
जल-तरंग ध्वनि; कलकल<br>
+
बजा तट-मृदंग सदल;<br>
+
पैंगें भर पवन कुशल<br>
+
गाती मल्लार।’’<br>
+
 
+
(2)
+
 
+
सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ<br>
+
नहीं अर्र-बर्र;<br>
+
नहीं वहाँ भेक, वहाँ<br>
+
नहीं टर्र-टर्र।<br>
+
एक यहीं आठ पहर<br>
+
बही पवन हहर-हहर, <br>
+
तपा तपन, ठहर-ठहर<br>
+
सजल कण उड़े;<br>
+
गये सूख भरे ताल, <br>
+
हुए रूख हरे शाल, <br>
+
हाय रे, मयूर-व्याल<br>
+
पूँछ से जुड़े !<br>
+
 
+
(3)
+
 
+
देखा कुछ इसी समय<br>
+
दृश्य और-और<br>
+
इसी ज्वाल से लहरे<br>
+
हरे ठौर-ठौर ?<br>
+
नूतन पल्लव-दल, कलि,<br>
+
मँडलाते व्याकुल अलि<br>
+
तनु-तन पर जाते बलि<br>
+
बार-बार हार;<br>
+
बही जो सुवास मन्द मधुर भार-भरण-छन्द<br>
+
मिली नहीं तुम्हें, बन्द<br>
+
रहे, बन्धु, द्वार ?<br>
+
 
+
(4)
+
 
+
इसी समय झुकी आम्र-<br>
+
शाखा फल-भार<br>
+
मिली नहीं क्या जब यह<br>
+
देखा संसार ?<br>
+
उसके भीतर जो स्तव, <br>
+
सुना नहीं कोई रव ?<br>
+
हाय दैव, दव-ही-दव<br>
+
बन्धु को मिला !<br>
+
कुहरित भी पञ्चम स्वर,<br>
+
रहे बन्द कर्ण-कुहर<br>
+
मन पर प्राचीन मुहर, <br>
+
हृदय पर शिला !<br>
+
 
+
(5)
+
 
+
सोचो तो क्या थी वह<br>
+
भावना पवित्र, <br>
+
बँधा जहाँ भेद भूल<br>
+
मित्र से अमित्र।<br>
+
तुम्हीं एक रहे मोड़<br>
+
मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;<br>
+
कहो, कहो, कहाँ होड़<br>
+
जहाँ जोड़, प्यार ?<br>
+
इसी रूप में रह स्थिर, <br>
+
इसी भाव में घिर-घिर, <br>
+
करोगे अपार तिमिर-<br>
+
सागर को पार ?<br>
+
 
+
(6)
+
 
+
बही बन्धु, वायु प्रबल<br>
+
जो, न बँध सकी;<br>
+
देखते थके तुम, बहती<br>
+
न वह न थकी।<br>
+
समझो वह प्रथम वर्ष, <br>
+
रुका नहीं मुक्त हर्ष, <br>
+
यौवन दुर्धर्ष कर्ष-<br>
+
मर्ष से लड़ा;<br>
+
ऊपर मध्याह्न तपन<br>
+
तपा किया, सन्-सन्-सन्<br>
+
हिला-झुका तरु अगणन<br>
+
बही वह हवा।<br>
+
 
+
(7)
+
 
+
उड़ा दी गयी जो, वह भी<br>
+
गयी उड़ा, <br>
+
जली हुई आग कहो, <br>
+
कब गयी जुड़ा ?<br>
+
जो थे प्राचीन पत्र<br>
+
जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र, <br>
+
झड़े हुए यत्र-तत्र<br>
+
पड़े हुए थे, <br>
+
उन्हीं से अपार प्यार<br>
+
बँधा हुआ था असार, <br>
+
मिला दुःख निराधार<br>
+
तुम्हें इसलिए।<br>
+
 
+
(8)
+
 
+
बही तोड़ बन्धन<br>
+
छन्दों का निरुपाय, <br>
+
वही किया की फिर-फिर<br>
+
हवा ‘हाय-हाय’।<br>
+
कमरे में मध्य याम, <br>
+
करते तब तुम विराम, <br>
+
रचते अथवा ललाम<br>
+
गतालोक लोक, <br>
+
वह भ्रम मरुपथ पर की<br>
+
यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी, <br>
+
जला शोक-चिह्न, दिया<br>
+
रँग विटप अशोक।<br>
+
 
+
(9)
+
 
+
करती विश्राम, कहीं<br>
+
नहीं मिला स्थान, <br>
+
अन्ध-प्रगति बन्ध किया<br>
+
सिन्धु को प्रयाण;<br>
+
उठा उच्च ऊर्मि-भंग-<br>
+
सहसा शत-शत तरंग, <br>
+
क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-<br>
+
अवगाहन-स्नान, <br>
+
किया वहाँ भी दुर्दम<br>
+
देख तरी विघ्न विषम, <br>
+
उलट दिया अर्थागम<br>
+
बनकर तूफान।<br>
+
 
+
(10)
+
 
+
हुई आज शान्त, प्राप्त<br>
+
कर प्रशान्त-वक्ष;<br>
+
नहीं त्रास, अतः मित्र, <br>
+
नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।<br>
+
उड़े हुए थे जो कण, <br>
+
उतरे पा शुभ वर्षण, <br>
+
शुक्ति के हृदय से बन<br>
+
मुक्ता झलके;<br>
+
लखो, दिया है पहना<br>
+
किसन यह हार बना<br>
+
भारति-उर में अपना, <br>
+
देख दृग थके !<br>
+

10:02, 3 जनवरी 2008 का अवतरण


परिमल
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