"आम्रपाली / अनामिका" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका |संग्रह=दूब-धान / अनामिका }} था आम्रपाली का घर<br> ...) |
(हिज्जे) |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
था आम्रपाली का घर<br> | था आम्रपाली का घर<br> | ||
− | मेरी ननिहाल के उत्तर !<br> | + | मेरी ननिहाल के उत्तर!<br> |
आज भी हर पूनो की रात<br> | आज भी हर पूनो की रात<br> | ||
खाली कटोरा लिये हाथ<br> | खाली कटोरा लिये हाथ<br> | ||
− | + | गुज़रती है वैशाली के खंडहरों से<br> | |
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।<br><br> | बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।<br><br> | ||
पंक्ति 15: | पंक्ति 15: | ||
चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-<br> | चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-<br> | ||
शरदकाल में जैसे<br> | शरदकाल में जैसे<br> | ||
− | (कमंडल-वमंडल बनाने की | + | (कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर)<br> |
पकने को छोड़ दी जाती है<br> | पकने को छोड़ दी जाती है<br> | ||
लतर में ही लौकी-<br> | लतर में ही लौकी-<br> | ||
− | पक रही है मेरी हर | + | पक रही है मेरी हर माँसपेशी,<br> |
खदर-बदर है मेरे भीतर का<br> | खदर-बदर है मेरे भीतर का<br> | ||
− | हहाता हुआ सत !<br><br> | + | हहाता हुआ सत!<br><br> |
सूखती-टटाती हुई<br> | सूखती-टटाती हुई<br> | ||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-<br> | सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-<br> | ||
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी<br> | नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी<br> | ||
− | एक झलक को तरसते थे ?<br> | + | एक झलक को तरसते थे?<br> |
− | ये मेरे सन-से | + | ये मेरे सन-से सफ़ेद बाल<br> |
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,<br> | थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,<br> | ||
नीलमणि थीं मेरी आँखें<br> | नीलमणि थीं मेरी आँखें<br> | ||
− | बेले के फूलों-सी झक | + | बेले के फूलों-सी झक सफ़ेद दन्तपंक्ति :<br> |
− | खंडहर का अर्द्धध्वस्त | + | खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो!<br> |
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,<br> | जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,<br> | ||
बुद्ध को घर न्योतकर<br> | बुद्ध को घर न्योतकर<br> | ||
पंक्ति 40: | पंक्ति 40: | ||
कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से<br> | कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से<br> | ||
टकरा गया मेरे रथ का<br> | टकरा गया मेरे रथ का<br> | ||
− | धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ !<br> | + | धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ!<br> |
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,<br> | लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,<br> | ||
− | बोले वे | + | बोले वे चीख़कर-<br><br> |
‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से<br> | ‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से<br> | ||
पंक्ति 49: | पंक्ति 49: | ||
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ<br> | ‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ<br> | ||
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’<br> | भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’<br> | ||
− | ‘‘जे आम्रपाली !<br> | + | ‘‘जे आम्रपाली!<br> |
− | सौ | + | सौ हज़ार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे!’’<br> |
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,<br> | ‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,<br> | ||
− | मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली !’’<br> | + | मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली!’’<br> |
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार<br> | मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार<br> | ||
− | चटकाने लगे | + | चटकाने लगे उंगलियाँ :<br> |
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,<br> | ‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,<br> | ||
− | बुद्ध को जीतें !’<br> | + | बुद्ध को जीतें!’<br> |
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,<br> | कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,<br> | ||
उन्हें घर न्योता,<br> | उन्हें घर न्योता,<br> | ||
पंक्ति 70: | पंक्ति 70: | ||
बहती रही<br> | बहती रही<br> | ||
सदियों<br> | सदियों<br> | ||
− | इस तट से उस तट तक !<br> | + | इस तट से उस तट तक!<br> |
टिमकता रहा एक अंगारा,<br> | टिमकता रहा एक अंगारा,<br> | ||
तिरता रहा राख की इस नदी पर<br> | तिरता रहा राख की इस नदी पर<br> | ||
पंक्ति 76: | पंक्ति 76: | ||
ठना-बना<br> | ठना-बना<br> | ||
− | तैरा लगातार !<br> | + | तैरा लगातार!<br> |
− | तैरी सोने की तरी !<br> | + | तैरी सोने की तरी!<br> |
− | राख की इच्छामती !<br> | + | राख की इच्छामती!<br> |
− | राख की गंगा !<br> | + | राख की गंगा!<br> |
राख की कृष्णा-कावेरी।<br> | राख की कृष्णा-कावेरी।<br> | ||
झुर्रियों की पोटली में<br><br> | झुर्रियों की पोटली में<br><br> | ||
पंक्ति 85: | पंक्ति 85: | ||
बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-<br> | बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-<br> | ||
वो ही मैं डालती जाती हूँ<br> | वो ही मैं डालती जाती हूँ<br> | ||
− | अब इधर-उधर !<br> | + | अब इधर-उधर!<br> |
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,<br> | गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,<br> | ||
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,<br> | चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,<br> | ||
− | + | बाक़ी खिले जाते हैं जिधर-तिधर<br> | |
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’<br><br> | चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’<br><br> | ||
− | सुनती हूँ मैं | + | सुनती हूँ मैं ग़ौर से आम्रपाली की बातें<br> |
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-<br> | सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-<br> | ||
− | जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है !<br> | + | जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है!<br> |
हरियाली ही बीज का सपना,<br> | हरियाली ही बीज का सपना,<br> | ||
− | रस ही रसायन है !<br> | + | रस ही रसायन है!<br> |
− | कमंडल-वमंडल बनाने की | + | कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर<br> |
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है<br> | शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है<br> | ||
लतर में ही लौकी<br> | लतर में ही लौकी<br> | ||
− | पक रही है मेरी हर | + | पक रही है मेरी हर माँसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?<br> |
− | कितनी तो | + | कितनी तो सुंदर है<br> |
हर रूप में दुनिया ! | हर रूप में दुनिया ! |
18:08, 2 मई 2008 का अवतरण
था आम्रपाली का घर
मेरी ननिहाल के उत्तर!
आज भी हर पूनो की रात
खाली कटोरा लिये हाथ
गुज़रती है वैशाली के खंडहरों से
बौद्धभिक्षुणी आम्रपाली।
अगल-बगल नहीं देखती,
चलती है सीधी-मानो खुद से बातें करती-
शरदकाल में जैसे
(कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर)
पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी-
पक रही है मेरी हर माँसपेशी,
खदर-बदर है मेरे भीतर का
हहाता हुआ सत!
सूखती-टटाती हुई
हड्डियाँ मेरी
मरे कबूतर-जैसी
इधर-उधर फेंकी हुईं मुझमें।
सोचती हूँ-क्या वो मैं ही थी-
नगरवधू-बज्जिसंघ के बाहर के लोग भी जिसकी
एक झलक को तरसते थे?
ये मेरे सन-से सफ़ेद बाल
थे कभी भौरें के रंग के, कहते हैं लोग,
नीलमणि थीं मेरी आँखें
बेले के फूलों-सी झक सफ़ेद दन्तपंक्ति :
खंडहर का अर्द्धध्वस्त दरवाज़ा हैं अब जो!
जीवन मेरा बदला, बुद्ध मिले,
बुद्ध को घर न्योतकर
अपने रथ से जब मैं लौट रही थी
कुछ तरुण लिच्छवी कुमारों के रथ से
टकरा गया मेरे रथ का
धुर के धुर, चक्के से चक्का, जुए से जुआ!
लिच्छवी कुमारों को ये अच्छा कैसे लगता,
बोले वे चीख़कर-
‘‘जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवी कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती है ?’’
‘‘आर्यपुत्रो, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध ने भात के लिए मेरा निमन्त्रण किया है स्वीकार !’’
‘‘जे आम्रपाली!
सौ हज़ार ले और इस भात का निमन्त्रण हमें दे!’’
‘‘आर्यपुत्रो, यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देनेवाली!’’
मेरा यह उत्तर सुन वे लिच्छवी कुमार
चटकाने लगे उंगलियाँ :
‘हाय, हम आम्रपाली से परास्त हुए तो अब चलो,
बुद्ध को जीतें!’
कोटिग्राम पहुँचे, की बुद्ध की प्रदक्षिणा,
उन्हें घर न्योता,
पर बुद्ध ने मान मेरा ही रखा
और कहा-‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,
बाकी सब ढह जाएगा...’
‘‘तो बहा काल-नद में मेरा वैभव...
राख की इच्छामती,
राख की गंगा,
राख की कृष्णा-कावेरी,
गरम राख की ढेरी
यह काया
बहती रही
सदियों
इस तट से उस तट तक!
टिमकता रहा एक अंगारा,
तिरता रहा राख की इस नदी पर
बना-ठना,
ठना-बना
तैरा लगातार!
तैरी सोने की तरी!
राख की इच्छामती!
राख की गंगा!
राख की कृष्णा-कावेरी।
झुर्रियों की पोटली में
बीज थोड़े से सुरक्षित हैं-
वो ही मैं डालती जाती हूँ
अब इधर-उधर!
गिर जाते हैं थोड़े-से बीज पत्थर पर,
चिड़िया का चुग्गा बन जाते हैं वे,
बाक़ी खिले जाते हैं जिधर-तिधर
चुटकी-भर हरियाली बनकर।’’
सुनती हूँ मैं ग़ौर से आम्रपाली की बातें
सोचती हूँ कि कमंडल या लौकी या बीजकोष-
जो भी बने जीवन, जीवन तो जीवन है!
हरियाली ही बीज का सपना,
रस ही रसायन है!
कमंडल-वमंडल बनाने की ख़ातिर
शरदकाल में जैसे पकने को छोड़ दी जाती है
लतर में ही लौकी
पक रही है मेरी हर माँसपेशी तो पकने दो, उससे क्या ?
कितनी तो सुंदर है
हर रूप में दुनिया !