"साक्षात्कार / लीना मल्होत्रा" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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हर सितारे को एक टापू की तरह टापते हुए मै | हर सितारे को एक टापू की तरह टापते हुए मै | ||
घूम आई हूँ इस विस्तार में | घूम आई हूँ इस विस्तार में | ||
− | जहाँ पदार्थ | + | जहाँ पदार्थ सिर्फ़ ध्वनि मात्र थे |
और पकड़ के लटक जाने का कोई साधन नही था | और पकड़ के लटक जाने का कोई साधन नही था | ||
− | एक चिर निद्रा में डूबे स्वप्न की तरह स्वीकृत | + | एक चिर-निद्रा में डूबे स्वप्न की तरह स्वीकृत |
तर्कहीन, कारणहीन ध्वनि | तर्कहीन, कारणहीन ध्वनि | ||
जो डूबी भी थी तिरती भी थी | जो डूबी भी थी तिरती भी थी | ||
− | + | अन्तस में थी बाहर भी | |
इस पूरे | इस पूरे | ||
− | + | तारामण्डल ग्रहमण्डल सूर्यलोक और अन्तरिक्ष में | |
− | जिसे न | + | जिसे न सिर्फ़ सुना जा सकता है |
बल्कि देखा जा सकता है | बल्कि देखा जा सकता है | ||
असंख्य-असंख्य आँखों से | असंख्य-असंख्य आँखों से | ||
और पकड़ में नहीं आती थी | और पकड़ में नहीं आती थी | ||
− | + | अनियन्त्रित, अनतिक्रमित और पीत-वर्णी अनहुई आवाज़ | |
− | क्या वह ध्वनि | + | क्या वह ध्वनि मै ही थी ? |
− | और वह शब्द का | + | और वह शब्द का घोड़ा तरल हवा-सा |
− | जो | + | जो अन्धड़ था या ज्वार |
जो बहता भी था उड़ता भी था | जो बहता भी था उड़ता भी था | ||
चक्र भी था सैलाब भी | चक्र भी था सैलाब भी | ||
पंक्ति 36: | पंक्ति 36: | ||
था ओजस्वी पावन | था ओजस्वी पावन | ||
तारों का पिता | तारों का पिता | ||
− | उड़ते थे तारे आकाश सब | + | उड़ते थे तारे आकाश सब मिल-जुल कर |
वह दृश्य दृष्टा और दृशेय मै ही थी....!!! | वह दृश्य दृष्टा और दृशेय मै ही थी....!!! | ||
भयानक था... | भयानक था... | ||
परीक्षा का समय | परीक्षा का समय | ||
− | + | आनन्द से पहले की घड़ी | |
क्या वह मै ही थी | क्या वह मै ही थी | ||
इस उजियारे अँधेरे जगत में फैली | इस उजियारे अँधेरे जगत में फैली | ||
एक कविता ... | एक कविता ... | ||
− | क्या वह शब्द मै ही थी | + | क्या वह शब्द मै ही थी ? |
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02:51, 6 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
शब्द के बेलगाम घोड़े पर सवार
हर सितारे को एक टापू की तरह टापते हुए मै
घूम आई हूँ इस विस्तार में
जहाँ पदार्थ सिर्फ़ ध्वनि मात्र थे
और पकड़ के लटक जाने का कोई साधन नही था
एक चिर-निद्रा में डूबे स्वप्न की तरह स्वीकृत
तर्कहीन, कारणहीन ध्वनि
जो डूबी भी थी तिरती भी थी
अन्तस में थी बाहर भी
इस पूरे
तारामण्डल ग्रहमण्डल सूर्यलोक और अन्तरिक्ष में
जिसे न सिर्फ़ सुना जा सकता है
बल्कि देखा जा सकता है
असंख्य-असंख्य आँखों से
और पकड़ में नहीं आती थी
अनियन्त्रित, अनतिक्रमित और पीत-वर्णी अनहुई आवाज़
क्या वह ध्वनि मै ही थी ?
और वह शब्द का घोड़ा तरल हवा-सा
जो अन्धड़ था या ज्वार
जो बहता भी था उड़ता भी था
चक्र भी था सैलाब भी
और यह आकाश जो खाली न था रीता न था
फक्कड़ न था
था ओजस्वी पावन
तारों का पिता
उड़ते थे तारे आकाश सब मिल-जुल कर
वह दृश्य दृष्टा और दृशेय मै ही थी....!!!
भयानक था...
परीक्षा का समय
आनन्द से पहले की घड़ी
क्या वह मै ही थी
इस उजियारे अँधेरे जगत में फैली
एक कविता ...
क्या वह शब्द मै ही थी ?