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17:34, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
घर की लोच रहा हूँ।
बापू की ऐनक को
माँ के गहने बेच रहा हूँ।
रखने लगी बहन सिरहाने
छिपकर छोटा शीशा,
भाई को खलते, खूँटी से
लटके गांधी ईसा,
छिड़ी बहस में
मैं, इसका उसका
संकोच रहा हूँ।
तीस वसन्तों की तेरहवीं
हुआ तुम्हारा चेहरा
नख-सिख लगता-
खालीपन के हाथों लिखा ककहरा,
एक जनम से
जिसको शिशु-सा
मैं लिख-पोंछ रहा हूँ
घर की लोच रहा हूँ।