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03:27, 1 दिसम्बर 2007 का अवतरण
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इस तन्हाई में फकीरे
दिन बीते धीरे-धीरे
- यहाँ सागर की राहों में
कभी नभ में छाते बादल
बजते ज्यूँ बजता मादल
- मन हर्षित होते घटाओं के
सागर का खारा पानी
धूप से हो जाता धानी
- रंग लहके पीत छटाओं के
जब याद घर की आती
मन को बेहद भरमाती
- स्वर आकुल होते चाहों के
बस श्वेत-सलेटी पाखी
जब उड़ दे जाते झाँकी
- मलहम लगती कुछ आहों पे