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"खुला घाव / शिरीष कुमार मौर्य" के अवतरणों में अंतर

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मैं सबका आभार नहीं मान सकता
 
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खुले घाव जल्‍दी भरते हैं
 
खुले घाव जल्‍दी भरते हैं

22:39, 26 मई 2014 के समय का अवतरण

मैं खुला घाव हूँ कोई साफ़ कर देता
कोई दवा लगा देता है
मैं सबका आभार नहीं मान सकता
पर उसे महसूस करता हूँ
सच कहूँ तो सहानुभूति पसन्‍द नहीं मुझे

खुले घाव जल्‍दी भरते हैं
गुमचोटें देर में ठीक होती हैं
पर खुले घाव को लपेट कर रखना होता है

मैं कभी प्रेम लपेटता
कभी स्‍वप्‍न लपेटता हूँ कई सारे
कभी कोई अपनी कराहती हुई कविता भी लपेट लेता हूँ
लेकिन हर पट्टी के अन्दर घुटता हुआ घाव तंग करता है
वह ताज़ा हवा के लिए तड़पता है

प्रेम, स्‍वप्‍न और कविता ऐसी पट्टियाँ हैं जो लिपट जाएँ
तो खुलने में दिक़्क़त करती हैं
मैं इनमें से किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता
पर घाव के चीख़ पड़ने पर इन्‍हें जगह-जगह से काटकर
खोल देना पड़ता है

खुला घाव खुला ही रहना चाहता है
खुला घाव तुरत इलाज चाहता है अपने में बंधा रहना नहीं चाहता
गुमचोटों की तरह बरसों टीसना नहीं चाहता
उसकी ओर से मैं क्षमा माँग लेता हूँ --
ओ मेरे प्रेम !
हे मेरे स्‍वप्‍नों !!
अरी मेरी कविता !!!

बना रहे प्रेम पर घाव को न छुपाए
बने रहेंगे मेरे स्‍वप्‍न सही राह चले तो झूटे आवरण नहीं बन जाएँगे
उघाड़ेंगे ही मुझे भीतर तक
बनी रहे कविता लगभग जैसी वह जीवन में है विकल पुकारती

यह खुला घाव खुला घाव ही है
बस कीड़े न पड़ें इसमें
वे जब ख़ूब छक चुकने के बाद भी
आसपास बिलबिलाते हैं
तो उनकी असमाप्‍त भूख मैं महसूस कर पाता हूँ

उनका जैविक आचरण रहा है मृत्‍यु के बाद देह को खा जाना
पर अब जीवन भी उनकी भूख में शामिल हैं
विचारहीन मनुष्‍यता उनका सामना नहीं कर सकती
वह जीवित रहते खा ली जाएगी

खुले घाव और बिलबिलाते कीड़ों के इस जुगुप्‍सा भरे प्रसंग में
मैं अपनी कोई चिन्‍ता नहीं करता
अपनी चिन्‍ता करना अपनी वैचारिकी के खिलाफ़ जाना है

लगातार लगते घावों से ही अब तक जीवन कई भटकावों से बचा है
कुछ और सधा है
मेरे अपनो
आश्‍वस्‍त रहो

मेरा होना एक खुला घाव तो है
लेकिन विचारों से बँधा है ।